पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२९६

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२६० सिद्धान्त और अध्ययन आलोचना का कालक्रम चाहे जो कुछ रहा हो किन्तु गनोवैज्ञानिक नाम से यात्मप्रधान या प्रभाववादी ( Subjective or Impressionist. ) पालोचना का स्थान पहले पाता है । श्रोता, पाठकों वा आत्म प्रधान दर्शक का स्वाभाविक हल्लिास इसका पूर्व रूप है। जब आलोचना तक यह साधुवाद एक व्यक्ति में सीमित रहता है तब तक उसका विशेष मान नहीं होता है, यदि वह व्यनित विशेषज्ञ हो तो दूसरी बात है । जब यह साधुवाद' सामूहिक रूप धारण कर लेता है तब इसका मूल्य बढ़ जाता है । अभावात्गक पालोचना का सामूहिक 'रूप हमको भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में बतलाई हुई नाटक की सिद्विषों ( सफलतामों ) में मिलता है। इन सिद्धियों का निर्णय दर्शकों के मुस्कराने, हँसने, साधुवाद या उसके विपरीत मानसिक कष्ट को व्यक्त करने बाले वाक्यों तथा हर्ष सूचक जनकोलाहल'. आदि पर निर्भर रहता था । इसी प्राधार पर निर्णायक-गण पुरस्कारस्वरूप पताका-प्रदान की राजा से सिफारिश करते थे । भरतमुनि ने सिद्धियों का इस प्रकार उल्लेख किया है :---- 'स्मिताहासातिहसा साध्य हो काठमेच या। प्रवृद्ध नादा च तथा ज्ञेया सिद्विस्त धामग्री ॥' नाव्यशास्त्र (२७१४) इस प्रकार की आलोचनाओं का जब सहृदयों द्वारा लिखा जाना प्रारम्भ हुना तभी वे समालोचना कहलाने लगी । इस प्रकार की आलोचनाएँ प्रारम्भिक काल में ही नहीं होती थीं वरन् इस युग में भी इसके पक्षपाती है। उनका कहना है कि पालोचना के लिए इससे बढ़कर क्या प्रमाण है कि कृति हमको अच्छी लगी या बुरी लगी। आलोचक का साहित्योद्यान में भ्रमण कर अपने प्रभाव को अंकित कर देना, यही पालोचना का मुख्य ध्येय है :- ___To have sensations in the presence of a work of aurt and to express them, that is the function of criticism for an impressionist critic' ___..Spingurn (The New Criticism) ऐसी बालोचना में भावनातत्त्व का प्राधान्य रहता है और बुद्धितत्त्व का अपेक्षाकृत ह्रास रहता है । डाक्टर अमरनाथ झा ने स्मरणीयता काय वा मुख्य गुण माना है, यह भी प्रभाववाद का ही प्रभाव है। सुप्रसिद्ध उपन्याराकार जैनेन्द्रजी भी इस प्रकार की आलोचना के पक्ष में हैं। ऐसे पालोचक एक प्रकार की साहित्यिक सदसद्विवेक-बुद्धि ( Literary Conscience ) में