पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/३०

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( २६ ) नाट्यसाहित्य पर 'नाटक' नाम की छोटी-सी पुस्तक लिखी। यह सन् १८८३ में लिखी गई थी। इसमें शास्त्रीय विवेचन और इतिहास दोनों ही हैं । कविराज मुरारिदास का 'जसवन्त भूषण' ( संवत् १६५०) नवीन युग विवेचन की ओर एक नया प्रयास था। उसमें सब अलङ्कारों के लक्षण व्युत्पत्ति देकर उनके नाम से ही निकाले गये हैं। इसमें पद्यमय लक्षण और उदाहरण भी हैं । गद्य में रस- सम्बन्धी सबसे पहला प्रयास अयोध्या-नरेश महाराज प्रतापनारायणसिंह का 'रसकुसुमाकर' है । यह संवत् १६५१ में इन्डियन प्रेस से प्रकाशित हुआ था। इसमें विवेचन गद्य में है और उदाहरण दूसरों के बनाये हुए छन्दों में हैं। इसके पश्चात् संवत् १६५३ श्रीकन्हैयालालजी पोहार की 'अलङ्कार-मञ्जरी' का पूर्व रूप 'अलङ्कार-प्रकाश' प्रकाश में आया है। उनका 'काव्य-कल्पद्रुम' पहले नागरी-प्रचारिणी सभा, नागरा से संवत् १९८३ में निकला। पीछे से इसके दो भाग हो गये-(१) अलङ्कार-मजरी और (२) रस-मञ्जरी। 'रस-मञ्जरी' वास्तव में 'काव्यप्रकाश' के आधार पर लिखा गया है। "रस- मञ्जरी' नाम होते हए भी, उसमें 'काव्यप्रकाश' के अनुकरण में असं लक्ष्य- क्रमव्यङ्गयध्वनि के अन्तर्गत रक्खा गया है । इन पंक्तियों के लेखक का 'नवरस' भी प्रायः उसी समय ( संवत् १९८६) का लिखा हुआ है । उसका छोटा संस्करण तो और पहले का ( अर्थात् संवत् १६७७ का ) था । बड़े और वर्तमान संस्करण का उल्लेख 'रस-मञ्जरी' में आलोचनात्मक रूप से हुआ है। शास्त्रीय ज्ञान का जहां तक सम्बन्ध है वहाँ तक 'रस-मञ्जरी' परम उत्कृष्ट ग्रन्थ है । उसका विवेचन भी शास्त्रीय ढंग का है और उदाहरण भी शास्त्रीय हैं जो अधिक सरस नहीं कहे जा सकते हैं। 'रस-मञ्जरी' में जो 'नवरस' की भूले दिखाई गई हैं लेखक को उनको खेदपूर्ण चेतना स्वयं भी उसके ( 'रस- मञ्जरी' के ) छपने से पूर्व ही हो चुकी थी किन्तु वह विवश था। नवरस के दूसरे संस्करण होने की अभी तक नौबत नहीं पाई । मालूम नहीं उन्होंने उसके पहले संस्करण में कितनी प्रतियाँ छाप डालीं जो खूब बिक्री होने पर भी अभी तक निश्शेष नहीं हुई। उसको कुछ भूलें मेरे अज्ञानवश हुई और अधिकांश भूलें पाण्डुलिपि की अव्यवस्था, प्रकाशक-लेखक के असहयोग और मेरे प्रूफ न देखने के कारण हुई। अस्तु, उन्हीं भूलों के संशोधन के उद्देश्य से मेरे मन में 'अकेले रस पर ही नहीं पूरे काव्य-सिद्धान्त पर एक छोटी-सी पुस्तक लिखने का विचार आया । वह विचार बहुत दिनों तक भालसियों के मनसूबों की भौति । निर्जीव रहा किन्तु श्रीचिरंजीलाल 'एकाकी' के उत्साह ने उसे सजीव बना दिया