२७६ .. . . सिद्धान्त और अध्ययन पहली दो चौपाइयों में संघर्ष का अभाव योतित है और अन्तिम दो चौपा- इयों में जीवन की सम्पन्नता दिखाई गई है। . ... साहित्य सामाजिक और राजनीतिक सुधार से विमुख नहीं हो सकता किन्तु उसकी पद्धति प्रेम-पूर्ण है। वह अपनी सामजस्य-बुद्धि, शालीनता और दुसरे के दृष्टिकोण को समझो की उदारता को नहीं त्यागता । यह शिव के साथ सौन्दर्य का भी उपासक है। वह शिव का प्रलयकार रूप नहीं वरन सौम्य रूप देखना चाहता है। वह सोन्दर्य को साधना उसके गङ्गलमय रूप में करता है और वह माङ्गल्य-विधान-श्री के सम्पन्नतामय सौन्दर्य के साथ करता है । कवि भगवान् के इस भङ्गला विधान के प्रान्तरिक रहस्य को समझकर उसको मुखरित करता है । वह संसार में व्याप्त अन्तरात्मा की विचारधारा का वाहक बन जाता है। तभी तो अपने ब्राह्मण अर्थात् विद्वान् को भगवान् का मुख कहा है 'ब्राहाणो मुखमासीत' इसीलिए साहित्यदर्पणकार ने प्रथम परिच्छेद में विष्णुपुराण का उद्धरण देते हुए कहा है :-- 'काव्यात्मायाश्च ये केचितोतकान्य खिलानि च । शब्दमूर्तिधरस्यै ते विष्णोरंशा महात्मनः।। - अर्थात् जितने काव्य और जितने गीत हैं वे सब विष्णु की गलियों हैं। अंग्रेजी भालोचक मिडिल्टन मरे (Middleton Murry) नीचे के प्रावतरण में भारतीय भावनाओं के बहुत निकट प्राजाते हैं : .. - fHe ( The Artist ) penetrates and seeks to identity himself with this timeless progress, in order that he mmy become, as it wer: the toproot of the spirit which is it worlk in the world he contemplates.' अर्थात् कलाकार संसार में प्रवेश कर उस संसार के अनन्त उन्नति के तत्त्व से अपना तादात्म्य कर लेता है जिससे कि वह उस पात्मा का जो कि उसके विचार के विषय-संसार में व्याप्त रहता है, गोमुख बन जाय। साहित्यिक समाज में मङ्गलमय व्यवस्था की स्थापना चाहता है। वह कला-सम्बन्धी सौन्दर्य को भी इसलिए मान देता है कि सौन्दर्य के प्रवेश-द्वार से सत्य और सुन्दर की सहन में स्थापना हो सकती है । सच्चा समालोचक काव्य के विषय और, उसको अभिव्यक्ति को समान महत्त्व देता है । सुन्दर अभिव्यक्ति के बिना विषय पंगु रह जाता है और विषय के सौन्दर्य के बिना कला का सौन्दर्य खोखला है ।
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