पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/३३

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( २६ ) वैसा ही रहा। फिर भी बाबूजी हम सब लोगों के पथ-प्रदर्शक रहे । उनका प्रयत्न भगीरथ प्रयत्न होने के कारण सर्वथा स्तुत्य है। . आचार्य महावीरप्रसाद' और बाबू श्यामसुन्दरदासजी के अतिरिक्त हिन्दी में साहित्य-शास्त्र उपस्थित करने के बहुत-से प्रयत्न हुए । कुछ प्राचीन परि- पाटी के अनुसार पद्य में (जैसे श्रीजगन्नाथप्रसाद भानु आचार्य शुक्लजी का 'काव्य-प्रभाकर' और 'रस-कलश' जिसकी गद्य में लिखी हुई भूमिका पद्य से अधिक मार्मिक है) और कुछ गद्य में भी प्रयत्न हुए ( जैसे डाक्टर सूर्यकान्त शास्त्री की 'साहित्य- मीमांसा' आदि ) । अलङ्कारों पर भी इस युग में कुछ अच्छे ग्रन्थ निकले हैं, उनमें प्रमुख हैं-लाला भगवानदीन की 'अलङ्कार-मञ्जूषा' लाला श्रीअर्जुनदास केडिया का 'भारती भूषण', सेठ कन्हैयालाल पोद्दार की 'अलङ्कार- मञ्जरी' और रसालजी का 'अलङ्कार पीयूष' आदि । रसों पर पण्डित हरिशङ्कर शर्मा का 'रस-रत्नाकर' बड़ा सरल और सुबोध है। उसमें जो संस्कृत के उदाहरणों का अनुवाद हुअा है वह बहुत ही सुन्दर है । । इन सब प्रयत्नों के होते हुए भी जितनी ख्याति प्राचार्य शुक्लजी को मिली उतनी और किसी को नहीं । वे ख्याति के योग्य भी थे क्योंकि उनका एक निश्चित दृष्टिकोण था और उसी दृष्टिकोण से उन्होंने सारे काव्य-क्षेत्र की जाँच पड़ताल की। उनमें सबसे बड़ा गुण सङ्गति और विचारों की दृढ़ता का था जो कहीं-कहीं ऊब दिलानेवाली पुनरुक्ति के दोष का तटस्पर्शी बन जाता है। शुक्लजी की प्रतिभा विषय-प्रधान थी इसी कारण वे भावपक्ष की अपेक्षा विभावपक्ष को अधिक महत्ता देते हैं और रहस्यवाद को उसके विभावपक्ष की अस्पष्टता के कारण निन्द्य ठहराते हैं। जो चीज लौकिक अनुभव के बाहर है (वे लौकिक को बिल्कुल सीमित अर्थ में नहीं लेते हैं। हृदय की मुक्तावस्था में अलौकिकता आजाती है किन्तु अाधार पृथ्वी का ही रहता है) वह कविता का विषय नहीं बन सकती। इसी विषय-प्रधानता के ही कारण वे प्रकृति के आलम्बनरूप से चित्रण के पक्ष में हैं और इसी के कारण उन्होंने आलोचना में सामाजिक मूल्यों और लोकपक्ष को महत्व दिया । उनकी कविता की व्याख्या में भी शेष सृष्टि पर विशेष बल है । वे अभिव्यञ्जना की शैली की अपेक्षा काव्य की वस्तु पर अधिक बल देते हैं। इसी नाते उन्होंने गोस्वामी तुलसीदासजी को कवियों में शीर्ष स्थान दिया है । हिन्दी में व्याख्यात्मक आलोचना का सूत्रपात शुक्लजी जी ने ही किया और वे इस प्रकार के आलो- चकों में अग्रगण्य हैं। शुक्लजी (संवत् १९४१-१९४८) ने यद्यपि 'साहित्या-