पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सिद्धान्त और अध्ययन १ : काव्य की आत्मा

.. शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर कहा गया है, ये दोनों ही अभिन्न-

से हैं । अर्थ के बिना शब्द का कुछ मूल्य नहीं-वह डमरू के डिम-डिम से भी कम मूल्य रखता है ( डमरू के डिम-डिम से महर्षि शरीर और पाणिनि द्वारा प्रतिपादित माहेश्वर सूत्रों का जन्म हुआ श्रात्मा था )- और शब्द के बिना अर्थ का मानव-मस्तिष्क में भी कठिनाई से निर्वाह होता है, इसीलिए तो शब्द और अर्थ की एकता को पार्वती-परमेश्वर की एकता का उपमान बताकर कवि- 'कूल-गुरु कालिदास ने अपने समर काव्य 'रघुवंश' के प्रथम श्लोक' द्वारा इस अटूट सम्बन्ध को महत्ता प्रदान की थी। शब्द के साथ अर्थ का लगाव है और अर्थ के साथ शब्द का । एक के बिना दूसरे की पूर्णता नहीं, इसीलिए दोनों मिलकर ही काव्य का शरीरत्व सम्पादित करते है। . : ......... . यद्यपि बिना शरीर के प्रात्मा का अस्तित्व प्रमाणित करना दर्शनशास्त्रियों की बुद्धि-परीक्षा का विषय बन जाता है तथापि प्रात्मा के बिना शृङ्गार की आलम्बनस्वरूपा ललित लावण्यमयी अङ्गनाओं के कोमल-कान्त-कमनीय कलेवर भी हेय, त्याज्य और वीभत्स के स्थायी भाव घृणा के विषय बन जाते हैं। अतः हमारे यहाँ के प्राचार्यों ने काव्य की आत्मा को विशेष रूप से अपनी मनीषा और समीक्षा का विषय बनाया है। ... .... १ वागर्थाविध सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये । जगतः पितरौ चन्दे पार्वतीपरसेश्वरौ ॥' . --रघुवंश (१३) इसी भाव को गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस प्रकार व्यक्त किया है :--- ...गिरा अरथ जल-बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न । ...:.:. बन्दउँ सीता-राम-पद, जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न ॥.... -रामचरितमानस (बालकाण्ड)