पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/४३

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काव्य की प्रात्मा-विभिन्न सम्प्रदाय इसीलिए तो बिहारी ने अलङ्कारों का तिरस्कार करते हुए उन्हें 'दर्पण-के-से मोर्चे' कहा है फिर भी अलङ्कार नितान्त बाहरी नहीं है, जो जब चाहे पहन लिये जायें या उतार कर रख दिये जायें । वे कवि या लेखक के हृदय के उत्साह से साथ बंधे हुए हैं । हमारी भाषा की बहुत-कुछ सम्पन्नता अलङ्कारों पर ही निर्भर है। वे महात्मा कर्ण के कवच और कुण्डलों की भाँति सहज होकर ही शक्ति के द्योतक बनते हैं। अलङ्कार और अलङ्कार्य : अब प्रश्न यह होता है कि क्या अलङ्कार और अलङ्कार्य में भेद नहीं है । इटली के अभिव्यञ्जनावादी समालोचक क्रोचे (Croce) अलङ्कार्य और अलङ्कार का भेद स्वीकार नहीं करते हैं। वे अलङ्कारों को ऊपर से आरोपित नहीं मानते। 'यह चादर सफेद है' यह एक वाक्य है । जब हम यह कहते हैं कि 'वह चादर दुग्ध-फेन-सम श्वेत है' तब हम पहले वाक्य पर कोई नया आरोप नहीं करते वरन् एक नया वाक्य ही रचते हैं। नया वाक्य एक नये प्रकार की अभिव्यक्ति का द्योतक होता है । हमारे यहाँ आचार्यों ने अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद माना है किन्तु यह भेद ऐसा ही है जैसे कि अङ्गी और अङ्ग का होता है । तरङ्गे समुद्र की होती हैं, समुद्र तरङ्ग का नहीं होता। कुन्तल ने स्वभावोक्ति को अलङ्कार नहीं माना है क्योंकि वह अलङ्कार्य है। अलङ्कार्य और अलङ्कार का भेद मानते हए भी हमें उसको बिल्कल ऊपरी न मानना चाहिए। वस्त के भीतर की चीज भी उसका अलङ्कार हो सकती है, जैसे फूल वृक्ष के अलङ्कार कहे जा सकते हैं ।' कविता का सौन्दर्य अलङ्कार और अलङ्कार्य की पूर्णता में है। पयसा कमलं कमलेन पयः पयसा कमलेन विभाति सर:'-का-सा अलङ्कार-अलङ्कार्य 'और पूरे वाक्य का सम्बन्ध है, इसीलिए कुन्तल ने पहले तो अलङ्कार और अलङ्कार्य का अन्तर आवश्यक माना है । यदि शरीर को ही अलङ्कार कहा जाय तो वह किसी दूसरी वस्तु का अलङ्करण कैसे करेगा क्योंकि वह तो अलङ्कार्य है। क्या कोई स्वयं अपने कन्धे पर चढ़ सकता है :- 'शरीरं चेदलङ्कारः किमलङ्क रुतेऽपरम् । श्रात्मैव नात्मनः स्कन्धं क्वचिदपयधिरोहति ।।' --बक्रोक्तिजीवित (१।१४) दोनों का भेद सुविधा के लिए व्यावहारिक रूप से मानना पड़ेगा किन्तु १ क्रोचे ने अलङ्कारों को अभिव्यक्ति का अङ्ग और पूर्ण से पृथक् न किये जाने योग्य कहा तो है किन्तु चे फूल की भाँति अलग दिखाई दे सकते हैं।