पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य की प्रात्मा-विभिन्न सम्प्रदाय अपनी-अपनी वृत्तियों के अनुकूल रसों में सहायक होते हैं । अलङ्कार अर्थ- व्यक्ति में भी सहायक होकर रस का उत्कर्ष बढ़ाते हैं। अलङ्कारवादी रस की नितान्त अवहेलना नहीं करते। वे रसवत् और प्रेयस् अलङ्कारों द्वारा रस और भाव के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। रस को रस के लिए नहीं वरन् चमत्कार बढ़ाने में सहायक होने के कारण अलङ्गार के रूप में ग्रहण करते हैं। सारांश यह है कि अलङ्कार नितान्त बाहरी न होते हुए भी अङ्गी का स्थान नहीं ले सकते हैं । रसों को रसवत् अलङ्कार के अन्तर्गत करना अपने मनोराज्य के मोदकों से भूख बुझाना-मात्र है । चमत्कार-मात्र स्वयं साध्य नहीं हो सकता है। २. वक्रोक्ति-सम्प्रदाय:-इसके प्रधान प्राचार्य कुन्तल हैं । वक्रोक्ति शब्द दो अर्थों में व्यवहृत होता है, एक अलङ्कार-विशेष के रूप में और दूसरा उक्ति की वक्रता वा असाधारणता के रूप में। बक्रोक्ति अलङ्कार वहाँ होता है जहाँ पर कि श्रोता श्लेष या काकु ( कण्ठ-ध्वनि ) के आधार पर वक्ता के अर्थ से कुछ भिन्न अर्थ लगाकर उसका उत्तर देने का चमत्कार दिखाता है, जैसे :--- 'अयि गौरवशालिनि ! मानिनि ! आज सुधास्मिति क्यों बरसाती नहीं ? निज कामिनि को प्रिय ! गौ, अवशा अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ? -पोद्दार अलङ्कारमंजरी (पृष्ठ ६७ तथा ६८) यहाँ पर महादेवजी ने तो सम्मान देने के लिए पार्वतीजी से 'गौरवशालिनि' कहा था किन्तु उन्होंने इस पंद को भंग करके ( गौः--अवशा+अलिनि ) इसका यह दूसरा ही अर्थ लगाया और महादेव जी को उलाहना दिया कि वे अपनी प्रिया को 'गौ, शक्तहीना और भौंरी' कहकर अपमानित करते हैं।' ___कुन्तल ने वक्रोक्ति को व्यापक अर्थ में लिया है। उस अर्थ में वह सब अलङ्कारों की माता बन जाती है, भामह ने कहा है-'कोऽलङ्कारोऽनया बिना' (काव्यालङ्कार, २८५)। कुन्तल ने वक्रोक्ति को कवि-कौशल द्वारा प्रयुक्त विचि- त्रता कहा है-'वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभङ्गीभणितिरुच्यते' (वक्रोक्तिजीवित,१।११) -विचित्रता के लिए 'विच्छित्ति' शब्द का प्रयोग किया गया है। कवि कुछ असाधारण बात कहता है, वह वायु को वायु न कहकर स्वर्ग का उच्छ्वास १ लेखक के नवरस में पाण्डुलिपि की अव्यवस्था के कारण वक्रोक्ति .. का वर्णन केवल अलङ्कार-रूप से ही छपा है ।