पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य की प्रात्मा-विभिन्न सम्प्रदाय व्यञ्जना के अञ्जन से भूतल का ही गुप्त खजाना नहीं वरन् हृदय-तल की निधि भी प्रकाशित हो जाती है। लक्ष्यार्थं और व्यङ्गयार्थ में यही भेद है कि मुख्यार्थ के बाध होने पर लक्षणा का व्यापार चलता है किन्तु व्यञ्जना-व्यापार में मुख्यार्थ के बाध की आवश्यकता नहीं होती । वह अर्थ ऊपरी तह पर नहीं होता है परन्तु उसमें झलकता दिखाई देता है । जहाँ पर अभिधा का अर्थ व्यञ्जना से दब जाता है वहीं रचना ध्वनि कही जाती है :- 'यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थों । व्यक्तः काव्यविशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः ॥' -ध्वन्यालोक (११३) इसी ध्वनि के चमत्कार के आधार पर काव्य की तीन श्रेणियाँ की गई हैं--पहली 'धनिकाव्य'१ जिसमें अभिधार्थ की अपेक्षा व्यङ्गयार्थ की प्रधानता हो, दूसरी 'गुणीभूत व्यंग्य'२ जिसमें व्यङ्गधार्थ गौण हो गया हो अर्थात् वाच्यार्थ के बराबर या उससे कम महत्त्व रखता हो, तीसरी 'चित्रकाव्य'३ जिसमें बिना व्यञ्जना के भी शब्दचित्रों (शब्दालङ्कारों) और वाच्यचित्रों (अर्थालङ्कारों) का चमत्कार होता है । यह ध्वनि-सम्प्रदाय की उदारता है कि जिन काव्यों में व्यङ्गयार्थ की प्रधानता न हो उनको भी काव्य की श्रेणी में रक्खा है। चाहे वह निम्न श्रेणी ही क्यों न हो । ध्वनि में व्यङ्गयार्थ की प्रधानता रहती है । वास्तव में यह अर्थ का भी अर्थ है, इसमें थोड़े में बहुत का, अथवा एकता में अनेकता का चमत्कार रहता है । क्षण-क्षण में नवीनता धारण करने वाला ५ 'इवमुत्तममतिश यिनि व्यंग्ये धाच्या ध्वनिबुधैः कथितः -काव्यप्रकाश (१४) २ 'प्रताडशि गुणीभूत व्यंग्य व्यङ्गय तु मध्यमम्' -काव्यप्रकाश (१११, प्रथम पंक्ति) 'प्रताशि' का अर्थ है 'वाच्यादनतिशयिनि' अर्थात् वाच्यार्थ से बढ़कर न हो। - ३ 'शब्दचित्रं वाच्यचित्रमव्यंग्यं स्ववरं स्मृतम् ॥ -काव्यप्रकाश (१।५, द्वितीय पंक्ति) - 'चित्र' शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है- . चित्रमिति गुणालङ्कारयुक्तम्' गुण या अलङ्कारों से सम्पन्न को चित्र कहते हैं।