पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/५४

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१६ सिद्धान्त और अध्ययन (कवि), कृति (काव्य) और भोक्ता (पाठक) तीनों को ही समान महत्त्व मिलता है। उसमें प्रभाव है, गति है और जीवन की तरलता है । वह गावि के हिमगिरि से विशाल, रत्नाकर से विस्तृत और गम्भीर हृदय-स्रोत से निस्त होकर कृति के रूप में प्रवाहित होता हुन्ना पाठक के हृदय को प्राप्लावित करता है। इसी से वह रस' (जल के अर्थ में) अपना नाम सार्थक करता है। प्रास्वाद्य होने के कारण वह रसना के रस की भी समानधर्मता सम्पादित करने में समर्थ रहता है । म्लान और म्रियमाण हृदयों को संजीवनीशवित प्रदान कर आयुर्वेदिक रस के गुणों को भी वह अपनाता है। काव्य का सार होने के कारण उसमें फलों के रस की भी अभिव्यक्ति है। रस अर्थात् मानन्द तो उसका निजी रूप है। वह रमणीयता का चरम लक्ष्य है और अर्थ की अर्थ- स्वरूपा ध्वनि का भी विश्राम-स्थल है । इसलिए वह परमार्थ है, स्वयंप्रकाश्य. चिन्मय, अखण्ड, ब्रह्मानन्द-सहोदर है—'रसौ वे सः'।