पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/७४

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सिहान्त और अध्ययन हैं । सङ्गीत में सामग्री उपादान नहीं बनती जैसी कि मूत्तिकला और निकाला में किन्तु काव्य की भांति वह माध्यम-मात्र रहती है । सङ्गीत का यदि कोई उपादान है तो वायु के कम्पन । राङ्गीत में विषय की इतनी महता नहीं होती जितनी आकार और विधि की। उसकी भाषा सार्वजनिक होती है। यह भावों को उत्तेजित करता है । विषय की सम्पन्नता जैसी काव्य में आती है, राजीत में नहीं रहती। काव्य : इस कला की सामग्री भाषा है । भाषा और भाव का जलवीचि- का-सा ही सहज सम्बन्ध है। उसमें भाव और सामग्री की टकराहट नहीं होती है और यदि होती है तो विजय-प्राप्ति के पश्चात् सामग्री और भाव का पूर्ण तादात्म्य हो जाता है । सङ्गीत इसका सखा या सेवक बनकर इसका उपकार करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कलाओं की परम्परा में सामग्री श्रमशः कम होती गई है और उसी के साथ भाव का प्राधिक्य होता गया है। तुलना और सम्बन्ध ! ये कलाएँ एक दूसरे से सम्बन्धित है । इन सब में भाव की अभिव्यक्ति रहती है। वास्तुकला को किसी अंग्रेजी लेखक ने जमा हुआ सङ्गीत (Frozen music) कहा है । सङ्गीत की भांति वास्तुकला की भी भाषा सार्वजनिक है। यदि उसमें गहराई की कमी है तो व्यापकता का आधिक्य है । ताज के सौन्दर्य से सभी लोग प्रभावित होते है । वास्तुकला में मानव की प्राकृति न रहते हुए भी वह मानवी भावों की शोतक होती है । मूत्ति और चित्र में भावों के साथ प्राकृति भी रहती है । चित्र में मानव-आकृति के साथ प्रकृति की भी प्रतिलिपि, पृष्ठभूमि के रूप से अथवा स्वतन्त्र रूप से प्रा जाती है । रङ्गों के कारण उसमें यह विशेष स्वाभाविकता और नाकर्षवाता माजाती है। मूतियाँ प्रस्तर-चित्र हैं । काव्य में भी चित्र उपस्थित किये जाते हैं। काव्य के चित्र शब्दों के माध्यम से कल्पना में जाग्रत किये जाते हैं । चिन और मूर्तियाँ अशिक्षित को भी प्रभावित कर सकती हैं। काव्य की पूरी बात तो नहीं किन्तु जहां तक मूर्त जगत का सम्बन्ध है वह चित्र में अच्छी तरह भाजाता है किन्तु चित्र से भी अच्छे रूप में काव्य का मूर्त और अमूर्त पर समान अधिकार है। चित्र में अमूर्त की व्यञ्जना ही रहती है, काव्य में उसका साक्षात वर्णन होता है। काव्य में प्रेम और चिन्ता जैसे अमूर्त पदार्थों का भी सफलता के साथ चित्रण हो जाता है । वास्तुकला तो नितान्त एकदेशीय है । मूर्तियों और चित्र स्थानान्तरित हो सकते हैं किन्तु वे काव्य की भाँति सर्वजनसुलभ नहीं हो सकते। सङ्गीत आकार-प्रधान काव्य है, काव्य सार्थक सङ्गीत है । मानवीय भावों का उतार-चढ़ाव और उसकी सूक्ष्मताएँ जितनी काव्य में अवतरित हो सकती है