पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/८५

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साहित्य की मूल प्ररणाएँ-काव्य के प्रयोजन _ 'कीन्हे प्राकृत जन गुण गाना । सिर धुनि गिरा लागि पछिताना ॥' -रामचरितमानस, ( बालकाण्ड ) कुम्भनदासजी में 'सन्तन को कहा सीकरी सों काम' कह बादशाह के निमन्त्रण को ठुकरा दिया था किन्तु अाजकल जीवन की आवश्यकताओं के बढ़ जाने के कारण बेचारे साहित्यिक को सरस्वती और लक्ष्मी के परस्पर वैमनस्य का दुःखद अनुभव प्राप्त करना पड़ता है । टैगोर या टैनीसन की भाँति बिरले ही कवि अपनी सम्पन्नता के कारण आर्थिक चिन्ता से परे होते हैं, नहीं तो अधिकांश साहित्यिकों के यहाँ चील के घोंसले में मांस की भाँति धन का अभाव ही रहता है। . .. ....... ३. व्यवहार विदे : काव्य से लोकव्यवहार का ज्ञान पाठक को तो होता ही है किन्तु स्रष्टा को भी होता है क्योंकि लिखने से पूर्व वह अपने ज्ञान को निश्चित कर लेता है। सूर और तुलसी के काव्य में उस समय के रीति-व्यवहार का ज्ञान होता है । यह तो इसके मोटे अर्थ हैं। काव्य के अध्ययन से व्यवहार की क्षमता भी प्राप्त होती है । इसका कारण यह है कि काव्य के अनुशीलन द्वारा मानव-हृदय के रहस्यों का पता चलता है और इसके कारण मनुष्य को वह अनुभव प्राप्त हो जाता है जो वर्षों के पर्यटन से न मिलेगा। ...... . ४. शिवेतरक्षतये : अर्थात् अनिष्ट-निवारण के अर्थ जो कविता लिखी जाती थी उसमें धार्मिक बुद्धि की प्रधानता रहती थी। काव्यप्रकाश में मयूर कवि का उदाहरण दिया है जिन्होंने कि सूर्य की शतश्लोकात्मक स्तुति कर अपने कुष्ट रोग का निवारण किया था। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी 'हनुमान बाहुक' इसी उद्देश्य से (बाहुपीड़ा-निवार्णार्थ) लिखा था । आजकल लोगों को दैवी शक्तियों में तो विश्वास नहीं है. किन्तु वे ; मानवी शक्तियों को ही सम्बोधित कर अनिष्ट-निवारण करने का उद्योग करते हैं। इस युग में केवल वैयक्तिक ही अनिष्ट-निवारण नहीं किया जाता वरन् समाज..और देश के कष्ट-निवारण के लिए भी काव्य रचे जाते हैं। प्रगतिवाद का कुछ-कुछ ऐसा ही उद्देश्य है किन्तु उच्च पदाधिकारियों की खुशामद में आर्थिक कष्ट- निवार्णार्थ कविता लिखने वालों की इस युग में भी कमी नहीं है ।... ५. सद्यः परनिवृत्तये : काव्य का मूल उद्देश्य यही है। काव्य के आस्वादन से जो रसरूप प्रानन्द मिलता है उसी की पोर इसमें लक्ष्य है :- 'सहृदयस्य तु काव्यश्रयणानन्तरमेव सकलप्रयोजनेषूत्तमं स्थायिभावास्वादन- . ... 'समुन्नतं वेद्यान्तरसम्पर्कशून्यं रसास्वादरूपमानन्दनम्' । काव्यप्रदीप (११२ कारिका की टीका)