पृष्ठ:सुखशर्वरी.djvu/४६

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सुखशवरी। -- v.....LIVE vvvA../ 15 - 1 2 - 1 - मन-- - - - - समझे कि, 'मैं तुम्हारे स्पर्शयोग्य भी नहीं हूं!' आबाबा! ब्राह्मण • अग्नितुल्य है, इसलिये मैं तो भागती हूं!" प्रेमदास,-"सुषदना ! यदि ऐसा है तो मैं भी ब्राह्मण नहीं हूं। यदि विश्वास न हो तो परीक्षा कर लो; जो कहो तो मैं इस जनेऊ को अभी तोड़कर फेंक दूं! तुम कहो तो मैं डुग्गी पिटवा दे कि, 'प्रेमदास आज से ब्राह्मण नहीं है' !" सुखदना,-"तुम निश्चय ही ब्राह्मण नहीं, बल्कि महाब्राह्मण "हो! यह देखो, तुम्हारे माथे में त्रिपुण्ड लगा है !" प्रेमदास,-"हाय ! आज मेरे सभी शत्रु होगए ! प्यारी सषदना ! पहिले से जो मैं जानता-क्षमा करो, क्षमा करो- सुबदना! हां, तुम कौन वंश की हौ ?" सुबदना,-"क्यों! मैं तो कुलीन ब्राह्मण की लड़की हूं!" प्रेमदास,-"अरे ! मैं भी तो वही हूं। ऐसा न होने से भला । मेरा आर्य-मन तुमपर क्यों आसक्त होता ? सुखदना ! तुम्हारा मन मुझसे राजी है?" सुखदना;-"प्रेमदास ! मेरे चरित्र के सम्बन्ध में लोग बहुत छिद्र देखते हैं, तुम क्या मुझे ग्रहण कर सकोगे ? किन्तु हां, तुम मेरे मनोनीत हो।" .. प्रेमदास,-"चरित्र-छिद्र-विशिष्ट है, यह मैं नहीं मानता; जो 'हो, मैं तुम्हें आदर के सहित हर्षपूर्वक ग्रहण करूंगा।" " सुबदना,-"ब्याह करके मुझे कहां ले जाओगे और कैसे मेरा भरण-पोषण करोगे? " प्रेमदास,-"सुबदने ! घबड़ाओ मत । हरिहरबाबू मुझे बहुत मानते हैं, इसलिये वे मुझे भारवाही देखकर घर-द्वार जरूर देंगे। तुम कुछ सोच न करो, मैं ठाकुरजी का भोग तुम्हीं को लगा सुबदना,-"तो तुम मुझे वस्तुतः खूब चाहते हो ! हां पहिले जिससे विवाह करने गए थे, वह देखने में कैसी थी ?" प्रेमदास.-"कैसी थी! सुनो, अमावास्या की रात्रि की तरह घोर मसीतुल्य बर्ण, दिल्ली सी अांखें, शृगाल-सम मुख, और कहां तक कई-ऊपर नीचे सब गोलमाल!" सुषदना,-"प्रेमदास ! शान्त होजाओ ! समझा मैने ! उसके