पृष्ठ:सुखशर्वरी.djvu/५१

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नवम परिच्छेद. देवमंदिर। "सदा प्रदोषो मम याति जाग्रतः, सदा च मे निश्वसतो गता निशा। त्वया समेतस्य विशाललोचने, ममाघ शोकान्त करः प्रदोषकः ॥" (कलाधरः ESEबदना, प्रेमदास और सरला घर का जलना देखकर स अनन्योपाय होकर पान्थनिवास से भाग गए थे, SN अनन्तर उन तीनों ने समीपवर्ती देवमंदिर में आश्रय ESE लिया था। इस मंदिर में श्रीराधाकृष्ण की जुगल. जोड़ी बिराजती थी। अब तक आकाश में चन्द्रमा चमकता था। सरला सोच में डूबी थी कि, "अनाथिनी कहां है ? क्या वह अपने काम में सफल-मनोरथ हुई ?" सुबदना चिन्ता करती थी कि, "किसने मेरे पान्थनिवास में डाह से आग लगाई ?" और प्रेमदास विचारते थे कि, "अब मेरे साथ सुखदना क्यों नहीं हास. बिलास करती?" सवेरा हुआ और प्रेमदास मंदिर में जाकर श्रीराधाकृष्ण के दाम्पत्य सद्भाव की महिमा मन में सोचने लगे। उन्होंने मन में विचारा कि, "सुखदना के संग जो मेरा इस प्रकार मिलन हो तो मैं कितना सुखी होऊंगा ?" यही सोचते सोचते छिप छिप कर वे सुबदना की ओर देखने लगे। फिर राधा और कृष्ण का मन में स्मरण करके उन्होंने भक्ति से प्रणाम किया। धीरे धीरे सूर्य की असंख्य किरणों से पृथ्वी छा गई, और प्रेमदास मारे भूख के विकल होने लगे। ठाकुर के पुजारी का घर पास ही था; सो, प्रेमदास उनसे चावल-दाल आदि भोज्य-सामग्री मोल लेकर एक पेड़ के नीचे रसोई बनाने लगे। पहिले उन्होंने सरला और सुबदना को भोजन कराया, पर उनका जी काँपता था कि, "कहीं मुझे थोड़ा न बचे। किन्तु उनका भाग्य अच्छा था कि उन दोनों ने थोड़ा ही खाया। पीछे