पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१०२

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प्रथमस्कन्ध- (९) गुण गण लिखत अंत नाहं पइयै । कृपासिंधु उनहीके लेखे मम लजा निर्वहियै ॥ सूर तुम्हारी ऐसी निवही संकटके तुम साथी । ज्यों जानौ त्यों करौ दीन की वात सकल तुम हाथी॥१७॥ तुम विनु सांकरे को काको । तुम बिनु दीनदयालु देवमणि नाम लेउँधों ताको ॥ गर्भ परीक्षित रक्षा कीनी हुतोनहीं वशताको । मेरी पीर परम पुरुपोत्तम दुख मेव्यो दोउ धांको ॥ हा करुणामम कुंजर टेरयो रह्यो नहीं वल जाको लागि पुकार तुरत छुट कायो काट्यो बंधन वाको। अंबरीपको शाप देन गयो बहुरि पठायो ताकोउलटी गाढ़ परी दुर्वासा दहत सुदर्शन जाकों ॥ निधरक पंडवसुत डोले हुतो नहीं डर काकोचारो वेद चतुर्मुख ब्रह्मा यश गावत हैं ताको। छोरी बंदि विदा करि राजा राजा होइ कि रांको जरासंघको जोर उधेरयो फारिकियो ? फांको। सभा माँझ द्रुपदी राखी पति पानिय गुण है जाको। वसन ओट करि कोट विश्वभर परन नपायो झांको ॥ भीर परे भीपम प्रण राख्यो अर्जुनको रथ हांको । रथते उतर चक्र कर लीनो भक्त वछल प्रण ताको ॥ गोपीनाथ सूरको स्वामी है समुद्र करुणाको । नरहरि हरि हरनाकुश मारयो काम परयो हो वांको ॥ १८ ॥ राग कान्हरा ॥ तुम्हरी कृपा गुपाल गुसाई मैं अपने अज्ञान न जानत। उपजत दोप नयन नहिं सूझत रविकी किरनि उलूक न मानत ॥ सब सुखनिधि हरि नाम महातम पायो है नाहिन पहिचानत । परम कुबुद्धिं तुच्छ रस लोभी कौड़ी बदले मगरज छानत ॥ शिवको धन संतनको सर्वस महिमा वेद पुराण बखानत । इते मान यह सूर महाशठ हरि नग वदलि महाखल आनत ॥४९॥ राग विलावल ॥ अपुने जान मैं बहुत करी। कौन भांति हरि कृपा तुम्हारी सो स्वामी समुझी न परी॥ दूरि गयो दरशनके ताई व्यापक प्रभुता सब विसरी मनसा वाचा कर्म अगोचर सो मूरति नाह नैन धरी ॥ गुणविनु गुणी स्वरूप रूप विनु नामलेत श्री श्याम हरी । कृपासिंधु अपराध अपरमित क्षमो सूरते सव विगरी ॥५०॥ तुमगोपाल मोसों बहुत करी । नर देही दीनी सुमिरनको मो पापीते कछु न सरी ॥ गर्भवास अति त्रास अधो मुख तहां न मेरी सुधि विसरी । पावक जठर जरन नहिं दीनों कंचन सी मेरी देह धरी ॥ जगमें जन्मि पाप बहु कीने आदि अंत लौ सब विगरी । सूर पतित तुम पतित उधारन अपने विरद किलाज धरी॥५॥राग धनाश्री॥ माधवजू जो जनते विगतउ कृपालु करुणामय केशव प्रभु नहि जीय धरै । जैसे जननि जठर अंतर्गत सुत अपराध करे । तउ पुनि जतन करै अरु पोपै निकसे अंक भरै । यद्यपि मलय वृक्ष जड़ काटत कर कुठार पकरे । तऊ सुभाव सुगंध सुशीतल रिपु तनु ताप हरे । ज्यों हल गहि धर धरत कृपी वल वारि वीज विथुरै । सहि सन्मुख त्यों शीत उष्णको सोई सफल करै ।। द्विज रस जानी दुखित होइ बहु तो रिस कहाकरे । यद्यपि अंग विभंग होतह ले समीप सँचर ॥ कारण करण दयालु दयानिधि निज भय दीन डरै। इंहि कलिकाल व्याल मुख ग्रासित सूर शरन उवरै ॥५२॥ राग फान्हरा ॥ दीनानाथ अव वार तुम्हारी । पतित उधारन विरद जानिके विगरी लेहु सँवारी ॥ वालापन खेलतही खोयो युवा विपय रस माते । वृद्ध भये मुधिं प्रगटी मोको दुखित पुकारत ताते॥सुतनि तज्यो तिय तज्यो भ्रात तजि तन त्वच भई जु न्यारी । श्रवणन सुनत चरण गति वाकी नेन भये जलधारी पलित केश कफ कंठ विरोध्यो कल न परी दिन राती । माया मोह न छाडै तृष्णा ए दोऊ दुख दाती ॥ अव या व्यथा दुरिकरिवेको औरन समरथ कोई । सूरदास प्रभु करुणा सागर तुमते | होइ सु होई ॥ ५३॥. राग आसावरी ॥ पतित पावन जानि शरन आयो । उदधि संसार शुभ ।