पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१०४

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प्रथमस्कन्ध-१ ..(११) || मायाके लालच कुल कुटुंब के हेत । सारी रैन नींद भरि सोवत जैसे पशु अचेत ॥ कागज धरनि करै द्रुम लेखनि जल सायर मसि घोर । लिखें गणेश जन्म भर ममकृत तऊ दोप नहिं ओर । गज गणिका अरु विप्र अजामिल अगनित अधम उधारे । अपथ चाल अपराध करे मैं तिनहूं ते अति भारे ॥ लिखि लिखि मम अपराध जन्मके चित्रगुप्त अकुलाय । भृगु ऋपि आदि सुनत चकृत भये यम मुनि शीश डुलाय ॥ परम पुनीत पवित्र कृपानिधि पावन नाम कहायो। सूर पतित जव सुन्यो विरद यह तव धीरज मन आयो ॥ ६० ॥ राग फेदारा ॥ मेरी कौन गति ब्रजनाथ। भजन विमुखरु शरण नाही फिरत विपयिन साथ ॥ हौं पतित अप- राध पूरण जरयो कर्म विकार । काम क्रोधरु लोभ चितवन नाथ तुम्हें विसार उचित अपनी कृपा करिहो तवै तौ पनिजाइ । सोइ करहु जो चरण सेवै सूर जूठनि खाइ ।। ६१ ॥ राग धनाश्री ॥ सोइ कछु कीजै दीनदयाल । जाते जन छिन चरण न छाँडै करुणासागर भक्तिरसाल ॥ इन्द्रिय अजित बुद्धि विपयारत मनकी दिन दिन उलटी चाल । काम क्रोध मद लोभ महा भय अहनिश नाथ भ्रमत वेहाल ॥ योग यज्ञ जप तप तीरथ व्रत इन में एको अंक न भाल । कहा करूं किहि भांति रिझाऊं हों तुमको सुन्दर नंदलाल ॥ सुनि समरथ सर्वज्ञ कृपानिधि अशरण शरण हरण जग जाल । कृपानिधान सूरकी यह गति कासों कहे कृपण यहि काल ॥ ६२ ।। ॥ राग गूनरी ॥ कृपा अब कीजिए वलि जाउं । नाहिं मेरे और कोउ बलि चरण कमल विनु ठाउं ॥ हौं असोच अकृत अंपराधी सन्मुख होत लजाउं । तुम कृपालु करुणानिधि केशव अधम उधारन नाउँ ॥ काके द्वार जाइहौं ठगढ़ों देखत काहि सुहाउं । अशरण शरण नाम तुमरो हौं कामी कुटिल सुभालं ।। कलकी और मलीन बहुत में सतै मेंत विकाउं सूर पतित पावन पद अंबुज क्योंसो परिहरि जारं ॥६३॥ राग सारंग ॥ दीनदयालु पतित पावन प्रभु विरद भुलावत कैसो । कहा भयो गज गणिका तारी जो जन तारो ऐसो। जो कवहूं नर जन्म पाई नहि नाम तुम्हारो लीनो। काम क्रोध मद लोभ मोह तजि अंत नहीं चित दीनोअकरम अबुध अज्ञान अवाया अनमारग अनरीति । जाको नाम लेत अप उपजे सो मैं करी अनीति ॥ इन्द्री रस वा भयो भ्रमत रह्यो जोइ को सो कोनो । नेम धर्म व्रत तप नाहिं संयम साधु संग नहिं चीनो। दरश मलीन दीन दुर्वल अति तिन कैसे दुख दामी । ऐसो सूरदास जन हरिको सव अधमनि में नामी ॥ ६४ ॥राग देवगंधार ॥ मोहिं प्रभु तुम सों होड़ परी। नाजानों करिहौजु कहा तुम नागर नवल हरीहोती जिती रह्यो पति ताहू में तें सबै गरी। पतित समूहनि उद्धरिवेको तुम जिय जक पकरी॥ मैं जू राजिव नैननि दुरिदुरि पाप पहार दरी । पावहु मोहिं कहो तारन को गूढ गंभीर खरीएक अधार साधु संगतिकोरंचि पचि कै सँचरी। सोचि सोचि जिय राखी अपनी धरनि धरी।। मोको मुक्त विचारत हो प्रभु पूंछत पहर परी । श्रम ते तुम्हें पसीना ऐहै कति यह जकनि करी॥ सूरदास विनती कहा विनवै दोपनि देह भरी। अपनो विरद सँभारहुगे तब यामें सव निवरी ॥ ॥६६ ॥ राग धनाश्री ॥ कव तुम मोसों पतित उधारयो । पतितनि में विख्यात पतितहौं पावन नाम तुम्हारयो । बड़े पतित पासंगहु नाही अजामिल कौन विचारयो । भाजे नरक नाम सुनि मेरो यमनि दियो हठ तारोक्षुद्र पतित तुम तारि रमापति जिय जु करौ जिन गारो । सूर पतित को और कहूं नहि है हरि नाम सहारो ॥ ६६ ॥ तुम कब मोसों पतित उधारयो । काहे को प्रभु विरद बुलावत विन मसकतं को तारयो ।। गीध व्याध गज गौतम की तिय उनको कहा