पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१०५

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(१२) सूरसागर। निहोरो । गणिका तरी आपनी करनी नाम भयो प्रभु तोरो ॥ अजामील तो विप्र तुम्हारो हतो पुरातन दास । नेक चूक ते यह गति कीनी फिर वैकुंठहि वास ।। पतित जानि तुम सब जन तारे । रह्यो न काहू खोट । तौ जानौं जो मोहिं तारिहौ. सूर कूर कवि ठोट ॥ ६७ ॥ ॥ पतित पावन हरि विरद तुम्हारो कौने नाम धरयो । होतो दीन दुखित अति दुर्वल द्वारे रटत परयो । चारि । पदारथ दए सुदामा तंदुल भेंट धरयो। द्रुपदसुताकी तुम पति राखी अंवर दान करयो । संदीपन सुत तुम प्रभु दीने विद्या पाठ करयो । सूर कि विरियां निठुर भये प्रभु मोते कछु न सरयो ॥ ६८ ॥ राग धनाश्री ॥ आजु हौं एक एक करि दरिहौं । के हमही के तुमहीं माधव अपुनः भरोसे लरिहौं । हौं तो पतित अहौं पीढिन को पतितै लै निस्तरिहौं । अब हौं उपरि नचन चाहत हौं । तुम्हें विरद विनु करिहौं । कत अपनी परतीत नशावत मैं पायों हरि हीरा । सूर पतित तवहीं । लै उठिहै जब हँसि देही वीरा ॥ ६९॥ राग नट ॥ कहावत ऐसे दानी । चारि पदारथ दये सुदामहि । अरु गुरुको सुत आनी ॥ रावणके दश मस्तक छेदे शर गहि सारंग पानी । विभिपन को तुम लंका दीनी पूर वली पहिचानी । विप्रसुदामा कियो अयाची प्रीति पुरातन जानी । सूरदास सों कहा निठुर भए नैनन हू की हानी ॥ ७० ॥ राग धनाश्री ।। मोसों वात सकुच तजि कहिये। कत भरमावत हौ तुम मोको कहु काके वै रहिये । कैयौं तुम पावन प्रभु नाहीं के कछ मोमै जोलो॥ तोहौं अपनी फेरि सुधारों वचन एक जो बोलो। तीनो पनमें और निवाही इहै स्वांगको काछे। ! सूरदासको यहै बडो दुख परत सबनके पाछे७राग सारंगाप्रभुहौं बड़ी वेरको ठाटो। और पतित तुम जैसे तारे तिनहीं में लिखि गानो।युग युग यहै विरद चलि आयो टेरि कहत हौं याते । मरियत लाल पांच पतितन में होव कहौं चटकाते ॥कै प्रभु हार मानिकै वैठहु के करो विरद सही। सूर पतित जो झूठ कहत है देखो खोजि वहीं ॥ ७२ ॥ प्रभु हौं सब पतितन को टीको। |' और पतित सब दिवस चारिके हौं जन्मत वाहीको ॥ वधिक अजामिल गणिका तारी और पूत नाहीको । मोहिं छांडि तुम और उधारे मिटै शूल क्यों जीको कोड न समरथ अव करिवेको सैंचि कहतही लीको । मरियत लाज सूर पतितनिमें हमहूंते को नीको ॥ ७३ ॥ हौंतो पतित शिरोमणि माधो । अजामील वातनहीं तारयो सुन्यो जो मोते आधो ॥ कै प्रभु हार मानिकै बैठहु कै अवहीं निस्तारौ। सूर पतितको और ठौर नहिं है हरि नाम सहारो ॥ ७ ॥ माधोजू और न मोते पापी । घातक कुटिल चवाई कपटी महा क्रूर संतापी ॥ लंपट धूत पूत दमरीको विषय जाप को जापी ॥ भक्ष अभक्ष अपेय पान करि कबहुँन मनसा धाती।। कामी विवस कामिनीके रस लोभ लालसा थापी। मन क्रम वचन दुसह सवहिन सो कटुक वचन आलापी॥जेतिक अधम उधारे तुम प्रभु तिनकी गति में नापी। सागर सूर भरयो विकार जलं पतित अजामिल वापी ।। ७५ ॥ राग कान्हरा ॥ हरिहौं सब पतितन पतितेश । और न सर करिखेको दूजो महा मोह मम देश ॥ आशाके सिंहासन वैव्यो दंभ छत्र शिरतान्यो । अपयश अति नकीव । कहिं टेरचो सब शिर आय समान्यो। तंत्री काम क्रोधनिज दोऊं अपनीअपनी रीति दुविधा दुंदुभि है निशि वासर उपजावति विपरीति ।। मोदी लाभ खवास मोहके द्वारपाल अहंकार । वात अहं ममताहै मेरी मायाको अधिकार।। सेवक तृष्णा भ्रमत टहल हित लहत न छिन विश्राम । अनाचार | सेवक सों सिलिक करत चवावन काम।। वाज मनोरथ गर्व मत्त गज असत कुसत स्थ मुत। पाइक मन वानैत अधीरज सदा दुष्ट मति दूत ॥ गढ़ वै भये नरकपति मोसों दीने रहत किंवार । सेना ।