पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१०८

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प्रथमस्कन्ध-१ (१६) पाइ ॥ कहा कहौं जो अद्भुत है वह कैसे कहूं वनाइ । भव अघोधि नाम नव नौका सूरहिं लेउ चढाइ ॥ ८९ ॥राग गौरी ॥ माधव जू तुम कत जिय विसरयो । जानत सब अंतरकी करणी जो मैं कर्म करयो। पतित समूह सबै तुम तारे हुते जु लोग भरयो। हौं उनसे न्यारो करि डारयो इहि दुख जात मरयो ॥ फिरि फिरि योनि अनंतनि भरम्यो अब सुख शरण परयो । इहि अवसर कत बांह छुड़ावत इहि डर अधिक डरयो ॥ हौं पापी तुम पतित उधारन डारे हो कत देत । जो जानत यह सूर पतित नहिं तो तारो निज हेत ॥९॥ राग केदारा ॥ जो पै तुमही विरद विसारयो । तो कहो कहां जाउँ करुणामय कृपण कर्मको मारयो॥ दीनदयालु पतितपावन यश वेद बखानत चारयो। सुनियत कथा पुराणनि गणिका व्याध अजामिल तारयो । राग द्वेप विधि अविधि अशुचि शुचि जिन प्रभु जितै सँभारयो। कियो न कहूं विलम्म कृपानिधि सादर सोच निवारयो । अगणित गुण हरि नाम तुम्हारे अजा अपुनपो धारयो । सूरदास प्रभु चितवत काहे न करत करत श्रम हारयो ॥ ९१॥ राग सारंग ॥ जैसे और बहुत खल तारे। चरण प्रताप भजन महिमा सुख को कहि सकै तिहारे॥ दुःखित गीध दुष्ट मति गणिका नृगै कूप उधारे । विप्र बजाइ चल्यो सुतके हित काटि महाअघ भारे ॥ व्याध दुरद गौतमकी नारी कहो कौन व्रत धारे । केशी कंस कुवलिया मुष्टिक सब सुख धाम सिधारेउरजनिको विप बांटि लगायो यशुमति की गति पाई । रजक मल्ल चाणूर दवानल दुख भंजन सुखदाई ।। नृप शिशुपाल महा पद पायो सर औसर नहिं जाने । अघ वक तृणावर्त धेनुक हति गुण गहि दोप न माने ॥ पंडुवधू पटहीन सभामें कोटिन बसन पुजाए । विपति काल सुमिरत छिन भीतर तहीं तही उठि धाए ॥ गोप ग्वाल गो सुत जल त्रासत गोवर्धन कर धारयो। संतत दीन महा अपराधी काहे सूर विसारयो॥ ९२॥ राग केदारा ॥ बहुरि की कृपाहू कहा कृपाल । विद्या मन जन दुखित जगत में तुम प्रभु दीनदयाल ॥ जीवत यांचत कनकान निधन दर दर रटत विहाल । तनु छूटे ते धर्म नहीं कछ जौ दीजे मणिमाल ॥ कहा दाता जो द्रदै न दीनहिं देखि दुखित कलिकाल । सूरश्याम को कहा निहोरो चलत वेदकी चाल ॥९३॥ कौन सुनै यह वात हमारी। समरथ और न देख तुम विनु कासों विथा कहौं बनवारी ॥ तुम अवगत अनाथके स्वामी दीनदयालु निकुंज विहारी । सदा सहाय करी दासनि को जो उर धरी सोई प्रतिपारी ॥ अब केहि शरण जाउँ यादवपति राखि लेहु बलि त्रास निवारी। सूरदास चरणनिके पलि बलि कौन गुसाते कृपा विसारी ॥ ९४ ॥ राग कल्याण ॥ जैसे राखहु तै- सहि रहौं । जानत दुख सुख सब जनके तुम मुख करि कहा कहौं ॥ कवहुँक भोजन लहों कृपानिधि कवहूं भूख सहों। कबहुँक चढों तुरंग महागज कबहुँक भार बहों॥ कमल नयन घनश्याम मनोहर अनुचर भयो रहों । सूरदास प्रभु भक्त कृपानिधि तुम्हरे चरण गहों ॥१५॥ राग धनाश्री ॥ कव लगि फिरि है दीन भयो । सुरत सरित भ्रम भँवर परयो तन मन परचत न लह्यो । वात चक्र तृष्णा प्रकृति मिलि हौं तृण तुच्छ गहों । उरझ्यो विवस कर्म तरु अंतर श्रम सुख शरण चरयो। सूर करन वर रच्यो जु निज कर सो कर नाहिं गरयो ॥९६॥ तेऊ चाहत कृपा तुम्हारी। जहिके वश अनमिप अनेक गण अनुचर आज्ञाकारी । वहत पवन भरमत दिनकर दिन फनपति शिर न डुलावै । दाहक गुण तजि सकत न पावक सिंधु न सलिल वहावै।। शिव विरंचि सुरपति समेत अव सेवत प्रभु पद चाये। जो कछु करन चहत सो कीजत करत है .. .. .