पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१११

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(१८) सूरसागर। .

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% होई । व्यास भई मेरी गति सोई॥ दासीसुत ते नारदं भयो । दुःख दासपनको मिटि गयो । व्यासदेव तब करि हरि ध्यान । कियो भागवत को व्याख्यान।।सुले भागवत जो चित लाई। सूर सुहरि भजि भव तरि जाई ।। १११ ॥ राग सारंग ॥ कयो शुक श्री भागवत विचार । जाति पांति कोऊ पूछत नहिं श्रीपतिके दरबार ॥ श्रीभागवत सुनै जो हित करि तरै सु भव जलधार । सर सुमिरि गुण रटि निशि वासर राम नाम निज सार ॥ ११२॥ नाम माहात्म्य वर्णन ॥ राग कान्हरा बड़ी है राम नामकी ओट । शरण गये प्रभु काढ़ि देत नहिं करत कृपाके कोट ॥ वैठत सभा सबै हरि जूकी कौन बड़ो को छोट । सूरदास पारसके परसे मिटत लोहके खोट॥११३॥ राग धनाश्री।। सोई भलो जु रामहिं गावै । इवपच प्रसन्न होइ बड़ सेवक विनु गुपाल द्विज जन्म न भावै ॥ वाद विवाद यज्ञ व्रत साधै कतहूं जाइ जन्म डहकावै । होइ अटल जगदीश भनन में सेवा तासु चारि फल पावै ॥ कहूं और नहिं चरण कमल बिनु श्रृंगी ज्यों दशहूं दिशि धावै । सूरदास प्रभु संत समागम आनंद अभय निसान वजावै ॥ ११४ ॥ राग सारंग ॥ काहूके वैर कहा सरै। ताकी सर वार करै सु झूठो जाहि गुपाल बड़ो करै ॥ शशि सन्मुख जो धूर उड़ावै उलटि तिसीके मुख परै चिरिया कहा समुद्र उलांचे पवन कहा पर्वत टरै ।। जाकी कृपा पतित होइ पावन पग. परसंत पाहन तरै । सूर केश नहिं टारि सकै कोउ दांत पीसि जो जग मरे ॥११५॥ राग केदारा ॥ है हरि भजन को परवान । नीच पावै ऊंच पदवी वाजते नीशान ॥ भजनको परताप ऐसो जल तरै पाषान । अजामिल अरु भील गणिका चढ़े जात विमान ॥चलत तारे सकल मंडल चलत शशिअरु भान भक्त ध्रुवको अटल पदवीरामके दीवान।। निगम जाको सुयश गावत सुनत संत सुजान । सूर हरिकी शरन आयो राखि ले भगवान ॥ ११६ ॥ भगवान विदुर गृह.भोजन करन वर्णन ॥ राग विलावलाहरि हरि हरि सुमिरौ सब कोई । ऊंच नीच हरि गिनत न दोई।विदुर गेह हरि भोजन पाये । कौरवपतिको मन नहि ल्याये ॥ कहौं सुकथा सुनौ मन लाई । शूर श्याम भक्तनि मन आई ॥ ११७॥ भए पांडवनिके हरि दूत । गये जहां कौरव पति धूत ॥ उनसों जो हरि वचन सुनाये । सूर कहत जो सुनि चित लाए ॥ ११८ ॥ सुनि राजा दुर्योधन हम, तुमपै आये । पांडुसुवन जीवित मिले दै कुशल पठाए।क्षिम कुशल अरु दीनता दण्वडत सुनाए कर जोरे विनती करी दुर्बल सुखदाए ॥ पांच गांव पांचौ जना करि किरपा दीजै । ए तुमरे कुलं. वंशहैं हमरी सुनि लीजै ॥ उनकी हमसों दीनता कोउ कहि न सुनावो । पांडु सुतनि अरु द्रौपदीको मारि कढ़ावो । राजनीति जानो नहीं गो सुत चरवारे । पीवहु छाँछ अपाइकै. कंव: केरे वारे ॥ गई गाँउके बेटला मेरे आदि सहाई । इनकी हम लज्जा नहीं तुम राज बड़ाई ॥ भीपमः | द्रोण कर्ण सुनै कोउ मुखहु न बोलै । ए पांडव क्यों काढ़िए धरणी डंग डोलैः ॥ हम कछु लेन न । देन हैं ए बीर तुम्हारे । सूरदास प्रभु उठि चले कौरवसुत हारे ॥ ११९ ॥ उदव प्रति वचन . ॥ धनाश्री ॥ उद्धव चलो विदुर के जाइये । दुर्योधन के कौन काज जहां आदर भाव न पाइयै ॥ गुरु मुख नहीं बड़े अभिमानी कापै सेव कराइयै । टूटी छानि मेघ जल वरपै टूटे पलँग विछाइयै ॥ चरण धोइ चरणोदक लीनो त्रिया कहै प्रभु आइयै । सकुचात फिरति जु बदन छिपावै भोजन | कहा मॅगाइये। तुमतो तीनि लोकके ठाकुर तुमते कहा दुराइये । हमतौ प्रेम प्रीतिके गाहक भाजा. शाक चखाइयै ॥ हसिं हँसि खात कहत मुख महिमा प्रेम प्रीति अधिकाइयै । सूरदास प्रभु भक्तनि केवश. भक्तन प्रेम बढ़ाइयैः ॥ १२० ॥ हरि ठाढे रथ. चढ़े दुवारे । तुम AD