पृष्ठ:सूरसागर.djvu/११३

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(२०) सूरसागर। काज ॥ खंभ फारि हरिनाकुस मारयो ध्रुव नृप धरयो निवाज ॥ जनकसुता हित हत्यो लेकप- ति बांधो साइर गाज ॥ गद्गद सुर आतुर तनु पुलकित नैननि नीर समाज। दुखित द्रौपदी जानि प्राणपति आये खगपति त्याज॥ पूरे चीर बहुरि तनु कृष्णा ताके भरे जहाज । काढि काढि थाक्यो दुःशासन हाथान उपजी खाजा विकल अमान कहो कौरवपति पारयो शिरको ताज । सूर प्रभू यह राति सदाही भक्त हेतु महाराज ॥ १३०॥ राग विहागरा ॥ ठाढ़ी कृष्ण कृष्ण यों वोले। जैसे कोई विपति परे ते दूरि धरयो धन खोले ॥ पकरयो चीर दुष्ट दुःशासन विलख बदन भई डोले। जैसे राहु नीच ढिग आये चंद्र किरन झक झोले ॥ जाके मति नन्दनन्दनसे ढकि लई पीत पटोले । सूरदास ताको डर काको हरि गिरिवरके ओलै ॥ १३१ ॥ राग धनाश्री ॥ तुमरी कृपा बिनु कौन उबारै । अर्जुन भीम युधिष्ठिर सहदेव सुमति नकुल बल भारै ॥ केश पकरि लायो दुःशासन राखौ लाज मुरारे । नाना वसन बढ़ाइ दियो प्रभु वलि बलि नंददुलारे ॥ नग्न न होति चकित भयो राजा शीश धुनै कर सों कर मारे । जापैकृपा करें करुणामय को ताकी दिशि सकै निहारेजोजो जन निश्चय करिसेबै हरि प्रभु अपनो विरद संभारे।सूरदास प्रभु अपने जनको उरते नेकु न टारै ॥१३२॥तसू वचन शौनकनि मति ॥ राग निलावल ॥हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ । हरि चरणाविद उर धरौ ॥ हरि पंडवको ज्यों दियो राज । अरु पुनि गयो राज्य ज्यों त्याज ॥ बहुरो भयो परीक्षित राजा । तिनको शाप विप्र सुत साजा ॥ सुनि हरि कथा मुक्ति सो भयो। सूत शौनकनि सों सो कह्यो । कहौं सो कथा सुनो चित धार । सूर कह भागावत अनुसार ॥१३३॥ भीष्मोपदेश युधिष्ठिर प्रति ॥ राग विलावल हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ। हरि चरणाविद उर धरौ भारत युद्ध होइ जब बीता। भयो युधिष्ठिर अति भयभीता ॥ कुरु कुल हत्या मोते भई । धौं अब कैसे करिहै दई । करौं तपस्या पाप निवारौं । रानछत्र नाही शिर धारौं । लोगन तिहि बहुविधि समझायो। पै तिहि मन संतोष न आयो॥ तब हार कह्यो टेक परिहरौ। भीष्म पितामह कहै सुकरौ ॥ हरि पांडवरण भूमि सिधाए । भीषम देखि बहुत सुख पाए ॥ हरि कह्यो राज्य न करत धर्मसुत । कहत हते भये प्रात भ्रात सुत ॥ गुरुहत्या मोते है आई। कहौ सुछूटै कौन उपाई॥राजधर्म भीषम तब गायो। दान आपदा मोक्ष सुनायो । पै नृपको संदेह न गयो। तब भीषम नृप सों पुनि कहो ॥ धर्मपुत्र तू देखि विचार । कारन करनहार करतार ॥ नरके किए कछू नहिं होई । करता हरता आपुहि सोई ॥ ताको सुमिरि राज्य तुम करौ। अहंकार चित ते परिहरौ ॥ अहंकार किये लागत पाप । सूरश्याम भजि मिटै संताप ॥ १३४ ॥ राग धनाश्री ॥ करी गोपालकी सब होई । जो अपनो पुरुषारथ मानत अति झुठोहै सोई ॥ साधन मंत्र यंत्र उद्यम बल यह सब डारहु धोई । जो कछु लिखि राखी नँदनंदन मेटि सकै नहिं कोई ॥ दुख सुख लाभ अलाभ समुझि तुम कहतहिं मरत हौं रोई । सूरदास स्वामी करुणामय श्याम चरण मन पोई॥ १३५ ।। राग कान्हरा ॥ होत सुजो रघुनाथ ठटी। पचि पचि रहे सिद्ध साधक मुनि तऊबढ़ी न घटी ॥ योगी योग धरत मन अपने औ शिर राखि जटी । ध्यान धरत महादेव अरु ब्रह्मा तिनहं सों न छटी॥ जपि तपि तपसी आराधन कर चारो वेद रटी । सूरदास भगवंत भजन बिनु कर्म रेख न कटी॥१३६॥ राग सारंग ॥ भावी काहू सों न टरै । कहां वह राह कहां वह रवि शशि आनि संयोग परै ॥ मुनि वशिष्ट पंडित अतिज्ञानी राचि पचि लग्न धरे। तात मरन सिय हरन राम वन वपु धार विपति भरेशरावण जीति कोटि तेतीसो त्रिभुवन राज्य करै । मृत्यु वांधि