पृष्ठ:सूरसागर.djvu/११४

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प्रथमस्कन्ध-१ (२१) कूप में राखै भावीवश सिगरे । अर्जुनके हरि हितू सारथी सोऊ. वन निकरै । द्रुपदसुता के राजसभा दुःशासन चीर हरै ॥ हरिश्चद्रसो को जग दाता सो घर नीच चरै । जो गृह छोड़ि देश बहु धावै तऊ वह संग फिर ॥ भावीके वश तीनि लोकहै सुर नर देह धरै । सूरदास प्रभु रची सु छैहै को कार सोच मरै ।।१३७॥राग कान्हरा॥ ताते सेइए यदुराई । संपति विपति वि. पति सों संपति देह धरेको यह सुभाई ।। तरुवर फूलै फलै परिहरै अपने कालहिं पाई । सरवर नीर भरै पुनि उमड़े सूखे खेह उड़ाई । द्वितिय चंद्र वाढत ही वाट्टै घटत घटत घटि जाई । सूरदास संपदा आपदा जिनि कोऊ पतिआई॥१३८॥मलार ।।इहि विधि कहा घटैगो तेरो। नंदनंदन करि घर को ठाकुर आपुन कै रहु चेरो ॥ कहा भयो जो संपति वाढी कियो बहुत घर घेरो। कहुँ हरि कथा कहूं हार पूजा कहुँ संतनिको डेरो ॥ जो वनितासुत यूथ सकेले है गै स्थनि घनेरो। सब तजि सुमिरण सूर श्याम गुण यहै सांच मत मेरो ॥ १३९ ॥ भारत वर्णन राग सारंग ॥ भक्तवछल श्री यादवराई । भीपमकी परतिज्ञा राखी अपुनो वचन फिराई ॥ भारत माहिं कथा यह विस्तृत कहत होय विस्तार । सूर भक्त वत्सलता वरणौं सर्व कथाको सार ॥ १४० ॥ अर्जुन दुर्योधनको गवन कृष्ण गेह ॥ भक्त वत्सलता प्रगट करी। सत संकल्प वेद की आज्ञा जनके काज प्रभु दूरि करी ॥ भारतादि दुर्योधन अर्जुन भेटन गए द्वारकापुरी । कमल नैन बैठे सुखशय्या पारथ पाइ तरी ॥ प्रभु जागे अर्जुन तन चितयो कब आये तुम कुशल घरी । ता पाछे दुर्योधन भेटहि शिर दिशते मन गर्व धरी॥ दुहूं मनोरथ अपनो भाष्यो तव श्री पति वातें उचरी । युद्ध न करौं शस्त्र नहिं पक एक ओर सेना सिगरी ॥ हरि प्रभाव राजा नहिं जान्यों कह्यो सेन मोहिं देहु हरी। अर्जुन कह्यो जानि शरणागत कृपा करौ ज्यों पूर्व करी। निज पुर आइराई भीषम सों कही जु बातें हरि उचरी।सूरदास भीपम परतिज्ञा शस्त्र लिवाऊ पैज करी॥१४१॥ दुर्योधन वचन भीष्म प्रति ॥ राग धनाश्री ॥ में तोहि पूछौं भूतलराई । सुनौ पितामह भीपम मम गुरु की कवन उपाई ।। उत अर्जुन अरु भीम पंडुसुत दोउ करवार गहै गंभीर । इत भगदत्त द्रोण भूरिश्रय तुम सेनापति धीर । जे जे जात परत ते भूतल ज्यों ज्वालागत चीर । कौन सहाय जानियत नाहिंन होत वीर निर्वीर । जव तोसों समुझाइ कही नृप तब तैं करी न कान । पावक कि रण दहत सवहीं दल तूल सुमेरु समानाअवगत अविनाशीपुरुषोत्तम हांकत स्थकी क्यानाअचरज कहा पार्थ जो वेधे तीन लोक इक वान । अजहूं समुझि कह्यो करि मेरो कहत पसारे वाह। कहो ताहिको सरिवर पूजे प्रभु पारथ दोउ माह । अवतो सूर शरण तकि आयो सोइ रजायसु दीजै । जिहिते रहै शत्रु प्रण मेरो वहै मतौ कछु कीजै ॥ १४२ ।। भीष्म प्रतिज्ञा || राग मलार आज जो हरिहि न शस्त्र गहाऊं ॥ तौलौं हौं गंगा जननी को संतनसुत न कहाऊ ।। स्यंदन खंड महारथ खंडों कपिध्वज सहित ढुलाऊं। इती न करोंशपथ मोहिं हरिकी क्षत्रिय गतिहि न पाऊं। पांडवदल सन्मुख है धाऊं सरिता रुधिर वहाऊं ॥ सूरदास रणभूमि विजय विन जियत न पीठि दिखाऊं।। १४३ ॥ राग मारू । सुरसरि सुवन रणभूमि आये। वाणवा लगे करन अति क्रोध है पार्थ औसान तव सबै भुलाये। कह्यो करि कोप प्रभु अब प्रतिज्ञा तजो नहीं तो भरत रण हम हराए । सूर प्रभु भक्तवत्सल विरद आनि उर ताहि या विधि वचन कहि सुनाये ॥ १४४॥ भगवत वचन अर्जुन मति ॥ राग बिलावल ॥ हम भक्तनके भक्त हमारे।सुन अर्जुन परतिज्ञा मेरी यह व्रत टरत न टारे।भक्तकाज लाज जिय धरिकै पाँइ पयादे धाऊोजहँ जहँ भीर परै भक्तनको तहँ तहँ