पृष्ठ:सूरसागर.djvu/११५

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.. (२२.). • सूरसागर। जाइ छुडाऊँ ॥जो मम भक्त सों वैर करत है सो निज वैरी मेरो। देखि विचारि भक्त हित कारण हांकत हो रथ तेरो ॥ जीते जीत भक्त अपने की हारे हारे विचारों । सूरदास सुनि भक्त विरोधी । चक्र सुदर्शन जारों ॥ १४५ ॥ राग सारंग ॥ गोविंद कोपि चक्र कर लीनो । छांडि आफ्नो प्रण. यादवपति जनको भायो कीनो॥ रथते उतारे अवनि आतुर है चले चरण अति धाए । मनु शंकित भूभार बहुत है चलत भए अकुलाए । कछुक अंगते उड़त पीतपट उन्नत बाहु विशालं।। स्वेद स्रोन तनु शोभा कन छवि घन वर्पत जनु लाल । सूर सुभुजा समेत सुदर्शन देखि विरांच भ्रम्यो । मानो आनि सृष्टि कारेवेको अंबुज नाम भज्यो ।।१४६।। राग मलार ॥ मेरी प्रतिज्ञा रहै कि । जाउ । इत पारथ कोप्यो है हम पर उत भीषम भटराउ ॥ रथते उतरि चक्र धरि कर प्रभु सुभटः हि सन्सुख आए । ज्यों कंदर ते निकसि सिंह झुकि गज यूथनिपर धाए ॥ आइ निकट श्रीनाथ विचारी परी तिलक पर दोठि । शीतल भई चक्रकी ज्वाला हरि हँस दीनी पीठि ॥ जय जय जय चिंतामणि स्वामी शंतनुसुत यां भाखै । तुम विनु ऐसो कौन दूसरो जो मेरो प्रण राखै ॥ साधु साधु सुरसरीसुवन तुम में प्रण लागि डराऊं। सूरजदास भक्त दोनों दिशि कापर चक्र चलाऊं ॥१४७॥ अर्जुन भीष्म संवाद । राग धनाश्री ॥ कहो पितु मोसों सोइ सतभाव । जाते दुर्योधन दल जीतों किहि विधि कवन उपाव ॥ जब लगि जी अंतर घट मेरे को सरिवर कार पावै । चिरंजीव जौलौं दुर्योधन जियत न पकराहिं आवै। कौरव छाँड़ेि भूमिपर कैसे दूजो भूप कहावै। तोहम कछु न वसाई पार्थ जो श्रीपति तोहि जितावे।। अब मैं शरण तुमैं तकि आयो हमैं मंत्र कछु दोनै। नातर कुटुंब सैन संहारिकर कौन काजको जीजै। द्रुपदकुमार होइ रथ आगे धनुष गहो तुम वान। ध्वजा वैठि हनुमत कलगाजै प्रभु हांके रथ जान । केतिक जीव कृपण मम वपुरो तजै काल हूँ प्रान । सूर एकही वाणा विडारे श्रीगोपाल की आन ॥ १४८॥ भीष्म देह त्याग । राग सारंग ॥पारंथ भीषमसों मति पाई। कियो सारथी शिखंडि आई ॥ भीपम ताहि देखि मुख फेरयो। पारथ युद्ध हेतु रथ प्रेरयो । कियो युद्ध अतिही विकरार। लागी चलनि रुधिरको धार ।। भीषम शरशय्यापर । परयोपि दक्षिणायन लगि नहिं मरयो।हरि पांडव समेततहँ आए।सूरज प्रभु भीपम मनभाए।।१४९॥ | राग सारंग । हरिसों भीषम विनय सुनाई । कृपा करी तुम यादवराई ॥ भारतमें मेरो प्रण राख्यो । अपनो कियो दुरिकर नाख्यो।तुम विनु प्रभु ऐसीको करै । जो भक्तनके वश अनुस।तुम दर्शन सुर नर मुनि दुर्लभ । मोको भयो सो आत ही सुर्लभ ॥ दूरि नहीं गोविंद वह काल । सूर कृपा कीजै गोपाल ॥ १५० ॥ गोविंद अब न द्वार वह काल । दीनानाथ देवकीनंदन भक्तवत्सल गोपाल ॥ मैं भीषम तुम कृष्ण सारथी किये पीत पट लाल.। बहुत सनाह समर शर वेधे कनकवेल ज्यों ताल ॥ तुमरे चरणकमल मम मस्तक कत ताको शर जाल । सूरदास जन जानि आपनो देहु अभयकी माल।। १५१ ॥ राग मल्लार ।। वा पट पीतकी फहरान। कर धरि चक्र चरणकी धावनि नहिं विसरति वह वान ॥ रथते उतार अवनि आतुर हकच रजकी लपटान मानों सिंह शैलते निकस्यो महामत्तगज जान ।। जिन गुपाल मेरोप्रण राख्यो मेटि वेदकी कान । सोई सूर सहाय हमारे निकट भए हैं आन ।। १५२ ॥राग सारंग ॥ भीपम धरि हरिको उर ध्यान। देखत हरिके तजे. परान ॥ तासु क्रिया कार सवगृह आए। राजा सिंहासन पैठाए॥ हरि पुनि द्वारा: वती सिधाए । सूरदास हरिको गुण गाए।॥ १५३ ॥ अथ भगवान्को द्वारका गमन ॥ राग बिलावल ॥ धर्मपुत्रको दै हरि राज.। निज पुर चलिवेको कियो साज ॥ तव कुंती विनती उच्चारी । सुनौ कृपा करि कृष्ण मुरारी । जब जब हमको विपदापरी । तव तव प्रभु-सहाय तुंम करी ॥ तुमतेः विमुखें.