पृष्ठ:सूरसागर.djvu/११६

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प्रथमस्कन्ध-१ (२३) - राज्य किहि कामासूर विसारहु हमैं न श्याम ॥ १५॥ अथ कुंतीकी विनय ॥ राग कान्हरा । प्रभु जू । विपदा भली विचारी। धिक यह राज्य विमुख चरणन ते कहति पंडुकी नारीलाक्षामंदिर कौरव विरच्यौ तहँ राखे वनवारी। दुर्योधनकी सभा द्रौपदी अंवर दए उवारी॥अतिथि ऋपीश्वर शाप- न आए शोक भयो जिय भारी । स्वल्प शाकते तृप्त किए सब कठिन आपदा टारी॥ परतिज्ञा प्रहादकि राखी थी नरहरि वपुधारी । सोई सूर सहाय हमारे संतनको हितकारी ।। १६५ ॥ अथ विदुरको उपदेश राना धृतराष्ट्र गांधारी मति वन गमन राजा युधिष्ठिरको वैराग्य वर्णन। .. राग विलावल।कुरुपति ज्यों वनगमन कियोधर्मसुवन विरक्त ज्यों भयो।वरणि सुनाऊं ता अनुसार। सूत कही जैसे परकार ॥ भारतादि कुरुपत्तिकी सथा। चली पांडवनकी जव कथा | विदुरकह्यो मत करो अन्याई। देहु पांडयन राज्य वटाई । कुरुपति कह्यो धान मम खाइ । पंडुसुतनकी करत सहाइ ॥याको शांते देहु निकारी। बहुरि न आवै मेरे द्वारीविदुर शस्त्र सब तहीं उतारी। चल्यो तीर्थनि मुंड उघारी॥ भारतके बीते पुनि आयो। लोगन सब वृत्तांत सुनायो । तव पूंछो कुरुप ति है कहां। कह्यो पंडुसुत मंदिर जहां राजा सेवा भलि विधि करत। दिन प्रति सुख संपति तहँ भरत ॥ विदुर कह्यो देखो हरिमाया। जिन इह सकल लोक भरमाया। जिह हरि कृपा करयो सो छूटयो । इन माया सब लोगनि लूटयो॥ इहिके पुत्र एकसौ भए । तिने विसारि सुखी ए हुए|अ- व मैं उनको ज्ञान सुनाऊं । जिहिं तिहिं विधि वैराग्य उपाऊं ॥ बहुरो धर्मपुत्र पै आयो। राजा देखि बहुत सुख पायो । करि सन्मान करो आ भाई । करी हमारी बहुत सहाई ॥ लाक्षागृहते जरत उवा।अरु वालापनते प्रतिपारे । कौन कौन तीरथ फिरि आए।विदुर सकल वृत्तांत सुनाए। वहरि को हरि सुधि कछु पाई। कह्योन कछू रह्यो शिरनाई। बहुरो कौरवपति ढिग आए। पूछे समाचार सतभाए ॥ कयो युधिष्ठिर सेवा करत । ताते बहुत अनंदित रहत ॥को पुत्रसुधि आवत कवहीं। कहो भाविएके वश सवहीं ॥ विदुर कह्यो शत पुत्र तिहारे । पंडव सुतनिकलंक संहारे। तिनके गृह तुम भोजन करत । अरु पुनि कहत सुखै हम धरत ॥ धिक् तुम धिक् या कहि वे ऊपर । जीवत रहिहो कोलौं भूपर ॥ श्वान तुल्य है बुद्धि तुम्हारी । जूठन काज सहत दुःख भारी । द्रौपदिके तुम बसन छिनाए । इन तुम राज बहुत दुख पाए ।। इनके गृह रहि सुख तुम मानत । अति निलजको लाज न आनत ॥जीवन आश प्रवल तुम लेखी। साक्षात सो तुममें देखी काल अग्नि सबही जग जारतातुम कैसे जीवन न विचारत ॥ आयु तुम्हारी गई सिराइ । वन चलि भजो द्वारकाराइ।।कुरुपति कहयो अंध हम दोईविनमें भजन कौन विधि होई।विदुर कहै सेवा मैं करिहौंसेिवा करत नेक नहिं टरिहौं।अनिशाताको लै गयो।पात भए नृप विस्मय भयो । वूडमुए कै कहुँ उठि गये। तिनके ताप नृपति वहु तए।वहां जाइ कुरुपति बल योगादियो छांडि तनुको संयोग ॥ गांधारी सहगामिनि कियो । विदुरभक्त तीरथ मग लियो॥ इहि अंतर नारद इहँ आयो। नृपको सब वृत्तांत सुनायो । नृपके मन उपजो वैराग । भजो सूर प्रभु अब सब त्याग ॥१५६॥ अथ हरि वियोग पांडवनको उत्तर गमनाग सारंगाहरि हरि हरि हरि सुमिरन करो।हरि चरणाविदउर धरौ। हरि वियोग पांडव तजि राजागमन कियो परीक्षित राज ॥ कहौ सुकथा सुनौ चितधार। सूर कहयौ भागवत अनुसार ॥ १६७ ।। रागाविलावल ॥ राजासों अर्जुन शिरनाई। कहयो सुनौ विनती महाराई ॥ बहुदिन भे हरिसुधि नहिं पाई । आज्ञा होइ तौ देखहुँ जाई। यह कहि पारथ हरिपुर गए । सुन्यौ सकल यादव क्षय भए॥अर्जुन सुनत नयन जलधार । परयो धरणि पर खाइ पछार ॥ तब दारुक -