पृष्ठ:सूरसागर.djvu/११८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथमस्कन्ध-१ MOHAMRow- Domamer- (२६) झुंज अब कहँ गयो । पुनि जब हरिको देखों जोई। पाइ संतोप सुखी होउँ सोई । राजा जन्म समय को देखि । मनमें पायो हर्प विशेखि ॥ गर्भ परीक्षित रक्षा करी । सोई कथा सकल विस्तरी॥ भी भगवान कृपा जिहि करै । सूर सो मारे काके मरै ॥ १६१ ॥ अथ परीक्षित रानाको कलियुग दंड । ऋपि शाप । राग सारंग ॥ हरि हरि भक्तनको शिरनाऊं । हरि हरि भक्तनके गुण गाऊं ॥ हरि हरि भक्त एक नहिं दोई। पै इह जानत विरला कोई ॥ भक्त परीक्षित हरिको प्यारो । गर्भ माह होतो जब वारो ॥ ब्रह्म अस्त्रते ताहि बचायो । युग युग विरद यहै चलि आयो।वहुरि राज्य ताकहँ जब भयो । मिस दिग्विजय चहूँ दिशि लयो ॥ सकल प्रजा सु धर्म रत देखे । ताके मन बहु हर्प विशेखे ॥ कुरुक्षेत्रमें पुनि जव आयो । गाय वृपभ तहँ दुःखित पायो । तासु वृपभ के पग त्रिय नाहीं । रोवत गाय देखके ताहीं ॥ वृपभ धर्म पृथ्वीसो गाइ । वृपभ कह्यो तासों या भाइ ॥ मेरे हेतु दुखी तू होत । के अधर्म तुमपर अच्छोत ॥ गो कह्यो हरि वैकुंठ सिधारे । शम दम उनहीं संग पधारे। तप संतोप दया अरु गयो । ज्ञान यमादिक सव लय भयो। यज्ञ साध ना कोऊ करै। कोऊ धर्म न मनमें धरै ॥ अरु तुमको विन पाँइन देखि । मोहिं होतहै दुःख विशेखि ॥ इह अंतर राजा शुद्र आयो । वृपभ गऊको पाँव चलायो ॥ ताहि परीक्षित खड्ग उठाइ । बहुरो वचन कह्यो या भाइ ॥ तू को कौन देशहै तेरो । के छल गयो राज्य सब मेरो ॥ या विधि नृपति परीक्षित कह्यो । पै वासों उत्तर नहि लह्यो। कह्यो वृपभ सों को दुखदाई । तासु नाम मोहिं देहु बताई ॥ इंद्र होइ ताहूको मारों । तुमरो यह संताप निवारों ।। वृपभ कह्यो तुम ऐसेइ राव । पै मैं लेंव कौन का नाँव ॥ कोउ कह हरिइच्छा दुख होई । द्वितिया दुखदायक नहिं कोई ॥ कोउ कह कर्म दुःखके दाता । काहू दुख नहिं देत विधाता। कोउ कह शत्रु होत दुखदाई । सुतौ मैं न कीनी शत्राई। काके नाउँ वताऊं तोको । दुखदायक अरिष्ट सम मोको । लहत आपने दुख दातार। तुमही देखो करियविचारतब विचारि करि राजा देख्यो।शूद्र नृपति कलियुग करि लेख्यो।वृपभ धर्म अरु पृथ्वी गाइ । इनको भयो इहौ दुखदाइ ॥ ताहि करो तुम बडा अधर्मी । तो समान नहिं और कुकर्मी।क्षमा दया तप पग ते कायो। छांडि देश मम यह कहि डाव्यो ॥ तिन कह्यो मोमें एक भलाई। तुमसों कहों सुनो चितलाई ॥ धर्म विचारत मनमें होई । मनसा पाप न लागत कोई । राज तुह्मारो है सब ठौर । तुम विनु नृपति न द्वितिया और।जौन ठौर मोहिं आज्ञा होई । ताहि और रौहों मैं जोई ॥ हो हरि विमुखरु वेश्या जहां सुरापान वधिकन गृह तहां ॥ जूवा खेलत जहां जुवारी । ए पांचों हैं और तुमारी ॥ पांचौ होइँ नृपति ए जहां। मोको ठौर वता बहु तहां ॥ तव नृप याको कनक बतायो । कनक मुकुट लखि सो लपटायो॥इक दिन राव अखेरै गयो । तावन माहँ पियासो भयो ॥ ऋपि समीकके आश्रम आयो । ऋपि हरिपदको ध्यान लगायो॥राजा जल ता ऋपि सों मांग्यो । ताको मन हरिपदसों लाग्यो । राजाको उत्तर नहिं दियो । तव मनमाहिं क्रोध नृप कियो।यह सब कलियुगको परभावाजो नृपके मन भयो कुठाव ॥ ऋपिकी कपट समाधि विचारी । दियो भुजंग मृतक गर डारी॥ ऋपि समाधि महँ त्योही रह्यो। शृंगीऋपि सों लरिकन कह्यो॥शंगीऋपि तव कियो विचार । प्रजा दुःख कर नृपति गुहार ॥ नृपति दुःख कहिए किहि जाईदियो शाप तोहिं तक्षक खाईदिकरि शाप पितापै आयोदेिख्यो सर्प पितागर नायोरोवन लाग्यो सु मृतक जान । रुदन करत छूट्यो ऋपि ध्यान ॥ सुत सों कह्यो कहा भयो तोहिं । कहि न सुनावत निज दुख मोहि ॥ शंगीऋपि सब कहि समझायो । तृप