पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१२०

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प्रथमस्कन्ध-१ (२७४ | में औरै आनि हुई। अविगतगति कछु समुझि परत नहिं जो कछु करत दई । सुत सनेह तिय सकल कुटुंब मिलि निशि दिन होत खई। पद नख चंद चकोर विमुख मन खात अँगार भई। विपय विकार दावानल उपजी मोह बयार वई । भ्रमत भ्रमत बहुते दुख पायो अजहुँ न टेव गई। कहा होत अबके पछताने होनी शिर वितई । सूरदाससेये न कृपानिधि जो सुख सकल मई ॥ १७०॥ राग सारंग ॥ एह सब मेरिये कुमति । अपनेही अभिमान दोप दुख पावत हों मैं अति ॥ जैसे केहार उझक कूपजल देखे आप मरत । कूप परयो पुनि मर्म न जान्यो भई आय सुई गत ॥ जों गज फटिक शिला में देखत दशनन जाइ अरत । जो तू सूर सुखहि चाहत है तो क्यों विपय परत ॥ १७१ ॥ राग केदार ।। झूठीह लगि जन्म गवायो । भूल्यो कहां स्वप्नके सुखको हरिसों चित न लगायो। कबहुँक बैव्यो रहसि रहसिक ढोटा गोद खिलायो । कबहुँक फूलि सभामें वैव्यो [छनि ताव दिवायो । टेढी चाल पाग शिर टेढी टेढे टेढे धायो। सूरदास प्रभु क्यों नाहि चेतत जब लगि काल न आयो॥ १७२ ।। राग केदारा ॥ जगमें जीवतहीको नातो।मन विछुरे तनु छार होइगो कोउ न वात पुछातो.॥ मैं मेरी कवहूं नहिँ कीजे कीजे पेंच सुहातो । विपय असक्त रहत निशि वासर सुख सीरो दुख तातो॥ साँच झूठ करि माया जोरी आपुन रूखो खातो।सरदास कछु थिर नहिं रहई जो आयो सो जातो ॥ १७३॥ राग धनाश्री ॥ कहा लाइ तें हरि सों तोरी । हरिसों तोरि कौनसों जोरी ॥ शिरपर धरि न चलेगो कोऊ अनेक जतन करि माया जोरी। राज पाट सिंहासन बैठे नील पदम हूं सों कहै थोरी॥ मैं मेरी करि जन्म गँवावत जब लगि नहिं परत यमकी डोरी । धन जोबन अभिमान अल्प जल कहैं कूर आपुनी वोरी ।। हस्ती देखि बहुत मन गर्वित ता मूरखकी मति है थोरी। सूरदास भगवंत भजन विनु चले खेलि फागुनकी होरी।। १७४ विचारतही लागे दिन जान । सजल देह कागज ते कोमल किहि विधि राखे प्रान ॥ योग न यज्ञ ध्यान नहिं सेवा संतसंग नहिं ज्ञान । जिह्वास्वाद इंद्रियन कारन आयु घटत दिन मान ॥ और उपाय नहींरे वोरे सुनि तू यह दे कान । सूरदास अव होत विगूचन भजिले सारंगपान ।। १७६ ॥ अव मैं जानी देह बुढ़ानी । शीश पाउँ घर कह्यो न मानत तनुकी दशा सिरानी॥आन कहत आने कहि आवत नाक नैन बहै पानी । मिटिगई चमक दमक अंग अंगकी दृष्टि अरु माति जु हिरानी॥ नारी गारी विन नहिं बोले पूत करे कलकानी । घरमें आदर कादर कोसों खीझत रौनि विहानी ॥ नाहिं रही कछु मुधि तन मनकी भई है वात पुरानी । सूरदास अब होत विगूचन भजिलै सारंगपानी ॥ १७६ ॥ चित्त बुद्धिको संवाद । राग देवगंधार ॥ चकई री चलि चरण सरोवर जहां न प्रेम वियोग । निशि दिन राम रामकी भक्ती भय रुज नहिं दुख सोग॥ जहां सनकसे मीन हंस शिव मुनिजननख रवि प्रभा प्रकाश । प्रफुल्लित कमल निमिप नहिं शशि डर गुंजत निगम सुवास ॥ जिहि सर सुभग मुक्ति मुक्ताफल सुकृत अमृतरस पीजै। सो सर छोडि कुबुद्धि विहंगम इहां कहा रहि कीजै ॥ छलमी सहित होत नित क्रीडा सोभित सूरजदास । अब न सुहात विपय रस छीलर वा समुद्र की आस ॥ १७७ ॥ राग देवगंधार ॥ चलि सखि तिहि सरोवर जाहि । जिहि सरोवर कमल कमला रवि विना विकसाहि ॥ हंस उज्वल पंख निर्मल अंग मलि मलि न्हाहि । मुक्ति मुक्ता अंधुके फल तिन्हैं चुनि चुनि खाहिअतिहि मगन महा मधुररस रसन मध्य समाहिं । पद्म बास सुगंध शीतल लेत पाप नशाहि सदा प्रफुल्लित रहै जल विनु निमिप नहिं कुम्हलाहि । देखि नीर जो छिल छिलो अति समुझि कछु मन माहि ॥ सघन