पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१२१

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सूरसागर। . २८) गंजत बैठि उनपर भौर हैं विरमाहिं । सूरक्यों नहिं चलो उडि तहां बहुरि उडिवो नाहि ॥ १७८॥ राग रामकली ॥ अंगीरी भजि चरण कमल पद जहँ नहिं निशिको त्रास । जहां विधु भानु, समान प्रभानख सो वारिज सुखरास ॥ जिहि किंजल्क भक्ति नव लक्षण काम ज्ञान रस एक । निगम सनक शक नारद शारद मुनिजन भुंग अनेक ॥ शिव विरंचि खंजन मनरंजन ।। छिन छिन करत : प्रवेश । अखिल कोश तहां वसत सुकृतजन प्रगट श्याम दिनेश ॥ सुनि मधुकरी भरमतजि निर्भय राजिववरकी आश । सूरज प्रेमसिंधुमें प्रफुल्लित तहां चलि करे निवास ॥ १७९॥ मन बुद्धिको संवाद : ॥राग देवगंधार ॥ सुवा चलि ता वनको रस पीजै । जा वन राम नाम अमृतरस श्रवणपात्र भार लीको तेरो पुत्र पिता तू काको घरनी घरको तेरो। काम कराल वानको भोजन तू कहै मेरो ॥ मेरो॥बड़ी वाराणसि मुक्तिक्षेत्रहै चलि तोको दिखराऊं। सूरदास साधुनकी संगति वड़ो भाग्य जो पाऊं ॥१८०॥ अथ मन प्रबोध ॥रे मन सुमरि हरि हरि हरि। शत यज्ञ नाहीं नाम सरिवर प्रीति करि । करि करिहरिनामहरिण्याक्ष विसारयो उठ्यो वरि परि वरि । प्रहाद हित जिन असुर मारयोताहि डरिडरिडरिगृध्रगणिका व्याधके अघ गये गरि गरि गरि।चरण अंबुज बुद्धि भाजन लेहु भरिभरि .. भरिद्रौपदीकी लाज कारण दाव परि परि परिपिंडुसुतके विघ्न जेते गए टरि टरिटरि॥कर्ण दुर्योधन दुःशाशन शकुनि और अरि अरि। सुतहित अजामिल नाम लीनोगयो तरि तरितरिचार फलके... दानिहैं प्रभु रहे फरि फरि फरि। सूर श्रीगोपालके गुण हृदय धरि धरि धरि ॥१८॥ राग केदारा करि मन नंदनंदन ध्यान । सेवि चरण सरोज शीतल तजि विपय रस पान ॥ जानु जंघ त्रिभंग: सुंदर कलित कंचन दंड । काछनी कटि पीत पट द्युति कमल केसर खंड ॥ जनु मराल प्रवाल, छोना किंकिणी कल राव । नाभि हृदय रोमावली अलि चारु सहज सुभाव ॥ कंठ मुक्तामाल ! मलयज उर वनी वनमाल । सुरसरी शशि तीर मानो लता श्याम तमाल॥वाह पाणि सरोज पल्लव धरे मृदु मुख वेणु । अति विराजति वदन विधुपर सुरभि मांडत रेणु ॥ अधर दशन कपोल नासा: परमसुंदर नैन । चलत कुडल मंड मंडल मनो निरतन मैन ॥ कुटिल कच भुव तिलक रेखा शीश शिखी शिखंड । मदन धनु मनो शर संधाने देखि धनकोदंड ॥ सूर श्रीगोपाल की छवि दृष्टि भरि भरि लेही । प्राणपतिकी निरख शोभा पलक परन न देहि ॥ १८२॥ भाजि . मन नंद नंदन चरण । परम पंकज अति मनोहर सकल सुखके करण ॥ सनक शंकर ध्यान ध्यावत निगम अवरन वरन । शेष शारद ऋपिसुनारद संत चिंतत चरण।। पद पराग प्रताप दुर्लभ मालो हित करण । परशि गंगा भई पावन तिहूं पुर घर घरन ॥ चित्त चिंतन करति कीरति अपहरत. तारन तरन । गये तरि ले नाम केते पतित हरि पुर घरन।जासु पदरज परशि गौतम नारि गति : उद्धरण । तासु महिमा प्रगट केवट धोइ पग शिर धरण ॥ सोइ पद मकरंद पावन अरुनहीं सर : वरण । सुर भजि चरणाविंदनि मिटै जामन मरण ॥ १८३ ॥ रेमन समुझि सोच विचारि। भक्ति विनु भगवंत दुर्लभ कहत निगम पुकारि ।। ढारि पासा साधु संगति केरि रसना सारि । दांव अबके परयो पूरो कुमति पिछली हारि॥ राखि सत्रह सुनि अठारह चोर पांचो मान! डारिदै तू तीन काने चतुर चौकनि हारि ॥ काम क्रोध मद लोभ मोसो पग्यो । नागार नारि । सूर धी गोविंद भजन विनु चले दोउ कर झारि ॥. १८४ : ॥ ॥ राग सारंग हो मन रामनामको गाहक । चौरासीलख जिया योनि में भटकत फिरत अनाहका । भक्ति हाट वैठि तू स्थिर है हरि नंग निर्मल लेहिकाम क्रोध मद लोभ मोहतू सकल दलाली