पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१२३

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. .. सूरसागर। (३०) गड़ाए। बुध विवेक बल हीन छीन तन सवही हाथ पराए । तिहि न करत चित अधम अजहुँलौं । जीवत जाके ज्याए।कहिधों साथ कौन है तेरे खान पान पहुँचाए।सूर सुमृग ज्योवाण सहत नित विषय व्याधके गाए।।१९३॥राग धनाश्रीपारे मन निपट निलज्ज अनीति । जियतकी कहिको चलावै ॥ मरत विषयाप्रीतिवान कुब्ज कुपंगुकानो श्रवण पुच्छ्वा हीनाभगनभाजन कठ कृमि शिरका- मिनी आधीना निकट आयुध धरे वंधक करत तीक्षण धार।अजानापकमग्न क्रीड़त चढ़त वारंवार।। देह छिन छिन होत छीनी दृष्टि देखत लोगोसूर स्वामीसों विमुख ए सती केसे भोग।।१९४ाराग गौरी || वौरे मन समुझि समुझि कछु चेताइतनो जन्म अकारथ खोयो श्याम चिकुर भए श्वेतातिवलगि सेवाकर निश्चय करि जब लगि हरवा खेतासूरदास भरम जिन भूलो करि विधनासे हेत ॥ १९५॥ राग धनाश्री ॥रे शठ विन गोविंद सुख नाहीं तेरो दुःख दूर करिखेको ऋद्धि सिद्धि फरि जाहीं॥ शिव विरंचि सनकादिक मुनिजन उनकी गति अवगाहीं। जगत्पिता जगदीश शरण विनु सुख तीनोंपुर नाहीं ॥ और सकल मैं देखे झूठे वादरकीसी छाहीं। सूरदास भगवंत भजन विनु दुख कवहं नहिं जाहीं ॥ १९६॥ राग कान्हरा ॥ मन तोसों कोटिकवार कही । समुझ न चरण गहत गोविंदके उर अघ शूल सही ॥ सुमिरन ध्यान कथा हरि जूकी यह एको न भई । लोभी लंपट विषयनसों हित यह तेरी निवही ॥ छांडि कनकमणि रत्न अमोलक कांचकी किरच गही । ऐसी तू है चतुर विवेकी पय तजि पियत मही ॥ ब्रह्मादिक रुद्रादिक रवि शशि देखे सुर सवही । सूरदास भगवंत भजन विनु सुख तिहुँ लोक नहीं ॥ १९७ ॥ राग परज ॥ मनारे माधव सों कर प्रीति । काम क्रोध मद लोभ मोह तू छोड़ि सबै विपरीति ॥भौंरा भोगी वन भ्रमै, मोद न मानै ताप । सव कुसुमिनि - मिलि रस करै, कमल बंधावे आप ॥ सुनि परमित पिय प्रेमकी, चातक चितवत पारि । धन आशा सव दुःख सहै, अंत न याचे वारि॥ देखो करनी कमलकी, कीनो जलसों हेत । प्राण तज्यो प्रेम न तज्यो सूख्यो, सरहि समेत ॥ दीपक पीर न जानई, पावक परत पतंग । तनुतो तिहि ज्वाला जरयो चित न भयो रस भंगामीन वियोग न । सहिसकै नरि न पूंछै वात। देखि जु तू ताकी गतिहि, रति न घटै तन जाताप्रीति परेवाकी गनो चाहन चढत अकाश । तहँ चढ़ि तीय जु देखिये परत छोड़ डरश्वास ॥ सुमर सनेह कुरंगकी पवन न राच्यो राग । धरि न सकत पग पछमनो, सरसन मुख उर लाग।। देखि जरनि जड़ नारि- की, जरत प्रेतके संग । चिता न चित फीको भयो, रची जु पियके रंग ॥ लोक वेद वरजत सवै नयनन देखत त्रासाचोर न जिय चोरी तजै, सरवस सहै विनास।सव रसकोरस प्रेमहै, विषयी खेले सार । तन मन धन यौवन खिसै, तऊ न मानै हार ॥ तेंजु रत्न पायो भलो, जान्यो साधु समाज ॥ प्रेम कथा अनुदिन सुनी, तऊ न उपजी लानासदा संघाती आफ्नो जियको जीवन प्रान । सो तू विसरयो सहजही, हरि ईश्वर भगवान ॥ वेद पुराण स्मृति सबै, सुर नर सेवत जाहि । महामूढ अज्ञानमति, क्यों न सँभारत ताहिखिग मृग मीन पतंग लो, मैं शोधे सब ठौरराजल थल जीव जिते. तिते, कहाँ कहां लगि और ॥ प्रभु पूरण पावन सखा, प्राणनहूँको नाथ । प्राण दयालु कृपालु प्रभु जीवन जाके हाथ ॥ गर्भवास अति त्रासमें, जहां न एको अंग । सुनि शठ तेरो प्राणपति, तहां न छांड्यो संग ॥ दिना राति पोषत रहै, ज्यों तंबोली पानावा दुखते तोह काढकै, लै दीनो.पयपा:: न ॥ जिन जड़ते चेतन कियो, रचि गुण तत्त्व विधान | चरण चिकुर कर नख दिए, नैन नासिका काना|अशन वसन बहु विध दिये,औसर औसर आनि।मात पिता भय्या मिलै,नई रुचइ पहिचानि॥ }