पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१२४

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प्रथमस्कन्ध-१ (३१), सजन कुटुंब परिजन बड़े, सुत दारा धन धाम । महामूढ़ विपयी भयो, चित आकर्यो काम ॥ खान पान परिधान रस, योवन गयो बितीत । ज्यों मिट परि परतीय वश, भोर भये भय भीत ॥ जैसे सुखही मन बढ्यो, तसे बढ्यो अनंग। धूम बढ्यो लोचन खस्यो, सखा न सूझयोसंग ॥ जम जान्यो सब जग सुन्यो, वाड़योअयश अपार । बीच न काहू तब कियो, जब दूतनि काट्यो पार॥ कह जानो कहवा मुचो, ऐसे कुमति कुमीच । हरिसों हेतु विसारिके, सुख चाहत है नीच ॥ जो प जिय लना नहीं, कहा कहीं सोबार । एकहु अंक न हरि भजे, रेशठ सूर गवार ॥ १९८ ॥ राग पत्त्यामा धोखेही धोखे डहकायो । समुझि न परी विपयरस गीध्यो हरिहीरा घरमांह गँवायो । ज्यों कुरंग जल देखि अवनिको प्यास न गई चहूं दिशि पायो। जन्म जन्म बहु कर्म किये हैं तिनमें आपुन आपु बँधायो । ज्यों शुक सेमर सेव आश लगि निशि वासर हठ चित्त लगायो । रातो परयो जये फल चाख्यो उड़ि गयो तूल तावरो आयो । ज्यों कपि डोरी बांध वाजिगर कन कनको चोहटे नचायो । सूरदास भगवंत भजन विनु काल व्यालले आप डसायो ।। १९९॥ राग धनाश्री ।। जन्म गवायो उआवाई ॥ भजे न चरण कमल यदुपतिके रह्यो पिलोकत छाई ।। धन जोबन मदड़ो पड़ी ताकत नारि पराई। लालच लुब्ध श्वान जूटनि ज्या सोऊ हाथ न आई ॥रंच कांच सुख लागि मृदमति कंचन राशि गधाई ।। सूरदास प्रभु छाडि सुधारस विपय परम विप साई ॥२०० ॥ भक्ति कर करिहो जन्म सिरानो। बालापनमें खेलत खोयो तरुणाप गरवानो । बहुत प्रपंच कर मायाको तऊन पेट अपानो। जतन जतन करि माया जोरै लेगये रंक न राना ॥ सुत वित वनिता मोह लगायो झुठे भरम भुलानो । लोभ मोहमें चेत्यो नाहीं सुपने ज्यों दहकानो ॥ वृद्ध भये कफ कंठ निरोध्यो शिर पनि ध्वनि पछतानो । सूरदास भगवंत भनन दिनु यमके हाथ विकानो॥२०१॥ मन रामनाम सुमिरन विन वाद जनम खोयो । रंचक सुख कारणले अंतकाल विगायो।साधुसंगति भक्ति विना तन अकारथ जाई। ज्ञानी ज्यों हाथ झारि चले छूटकाई। सुत दारा देह गेंद संपति सुखदाई। इनमें कछु नाहि तेरी काल अवधि आई। काम क्रोध लोभ मोहमनमत जोयोगिोविंद गुण चित बिसारिकीन नींद सोयो।सूर कहें शुचि विचारिभ्रम भृल्यो अंधाराम नामले तनिकार और सकल धंधा।२०२॥राग कल्याणाभक्ति विन वेल विराने हो। पाँउ चारि शिर शृंग गुंग मुख तव कसे गुण गहो।चारि पहरदिन चरत फिरत वन तऊन पेट अपहो। टूटे कंध सुफूटी नाकानि काली घी भुस सहो । लादत जोतत लकुट बार्जिह तब कहँ मूंड रहो। शीत घाम पन विपति बहुत विधि भार तरे मरिजहो । हरि संतनको कह्यो न मानत कियो आपुनो पहो । सूरदास भगवंत भजन बिन मिथ्या जन्म गदैहो । २०३ ॥ राग सारंग । छाँडि मन हरि विमुखनको संग । जिनके संग कुबुद्धि उपजतिहे परत भजनमें भंग ।। कहा होत पयपान कराय विप नाहि तजत भुजंग । कागहि कहा कपुर चुगायो धान न्हवाये गंग ॥ सरको कहा अरगजालपन मकट भूपण अंग। गजको कहा न्हवाये सरिता बहुरि धरै सहि छंग ॥ पाहन पतित वांस नहिं वेधत रीतो करत निसंग । सूरदास सल कारी कामरि चढ़त न दूजो रंग॥२०॥ गग सोरट ॥ रेमन जन्म अकारथ सोइस । हरिकी भक्ति कबहुँ नहिं कीनी उदर भरयो पर सोइस। निशि दिन रहत फिरत मुँह बांधे अहंकार कार जन्म विगोइस । गोड़ पसार परयो दोड- निके अबके कीये कहा होइस || काल यमनिसों आनि वनहे देखि देखि मुख रोइस । सरझ्यामपिन कीन छुड़ाव चले जाहु भाइ पोइस ॥ २०५ ॥ तवते गोविंद क्यों न सँभारे । % 3D Awe n enimran. . .. ... .. . .. - . . . ..