पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१३३

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सूरसागर।

पुनि दक्षादि प्रजापति भये । स्वयंभू आदि चार मनु भये ॥ इनते उपजी सृष्टि अपार । सर कहां लौं करै विस्तार ॥६॥ अथ सुर असुर उत्पत्ति वर्णन ॥ राग बिलावल ॥ ब्रह्मा ऋपि मरीचि निर्मायो । ऋपि मरीचि कश्यप उपजायो । सुर अरु असुर कश्यपके पुत्र । भ्रात विमात आपमें शत्रु ॥ सुर हरिभक्त असुर हरि द्रोही । सुर आति क्षमी असुर अति कोही ॥ उनमें नित उठि होइ लराई करें सुरन की कृष्ण सहाई । तिन हित जोजो किए अवतार।कहीं सुर भागवत अनुसार ॥ अथ वाराह रूप वर्णन। राग बिलावल ॥ ब्रह्माते स्वयंभू मनु भयो । तासों सृष्टि करनको करो ॥ तिन ब्रह्मासों कहो शिरनाई। सृष्टि करौ सुरहै किहि भाई ॥ ब्रह्मा हरिपद ध्यान लगायो । तव हरि वपु वराह धरि आयो॥ वै वराह पृथ्वी जव लायो । सूरदास शुक त्योंही गायो॥ ८॥राग धना- श्री ॥ हरि गुण कथा अपार पार नहिं पाइये । हरि सेवत सुख होइ हरी गुण गाइये ॥ ब्रह्मपुत्र सनकादि गये वैकुंठ एक दिन । द्वारपाल जय विजय हुते वरज्यो तिहिको पुन ॥ शाप दियो तव क्रोध है असुर होउ संसार । हरि दर्शनको जात क्यों रोक्यो विना विचार ॥ हरि तिनसों कह्यो आइ अली शिक्षा तुम दीनी । वरज्यो आवत तुम्है असुर बुद्धी इन कीनी ॥ तिन्हें कयो संसारमें असुर होउ अब जाइ। तृतियहि जन्म विरुद्ध करि मोसों मिलिहौ आइ ॥ कश्यप की दिति नारि गर्भ ताके दोउ आए । तिनके तेज प्रताप देवतनि बहु दुख पाए ॥ गर्भ माहिं शत वप रहि प्रगट भए पुनि आइ । तिन दोउनको देखिकै सुर सब गए डराइ ॥ हारण्याक्ष इक भयो हरिण्यकशिपु भयो दूजो। तिनके वलको इंद्र वरुण कोऊ नहिं पूजो॥ हरिण्याक्ष तव पृथ्वी को ले राख्यो पाताल । ब्रह्मा विनती कार को दीनबंधु गोपाल || तुम विन दुतिया और कौन जो असुर सँहार। तुम विनु करुणासिंधु कौन पृथ्वी उद्धारै। तव हरि घरि वाराह वपु। ल्याए पृथ्वी उठाइ । हिरण्याक्ष लेकर गदा तुरतहि पहुँच्यो आइ ॥ असुर कोप है कह्यो बहुत तुम असुर संहारे । अब लेहौं वह दांव छांडिहौं नहिं विन मारे ॥ यह कहिकै मारी गदा हरिजू ताहि सँभारि । गदा युद्ध तासों कियो असुरन मानी हारि ॥ तब ब्रह्मा कार विनय कह्यो हरि ताहि संहारयो। तुम तौ लीला करत सुरन मन परोधकारो ॥ मारयो ताहि विचारि हरि सुर मुनि भयो हुलास । सूरदासके प्रभु बहुरि कियो वैकुंठ निवास ॥९॥ अथ कपिल देवमुनि अवतार वर्णन ॥राग विलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमरनि करौ । हरिको ध्यान सदा हिय धरो॥ज्यों भयो कपिलदेव अवतार । कहौं सो कथा सुनौ चित धार ॥ कर्दम पुत्र हेतु तप कियो । तासु नारि हूं इक व्रत लियो॥ हरिसों पुत्र हमारे होई। और जगत सुख हूं पुनि होई ॥ नारायण तिनको वर दियो । मोसों और न कोई वियो । मैं लेहौं तुम गृह अवतार । तप तजि करो भोग संसार॥ दुहुँ तब तीरथ माहिं न्हवायो। सुंदर रूप दुहूं जन पायो॥ भोग समग्री जुरी अपार। विचरन लागे सुख संसाराातिनके कपिल देव सुत भयोपरम भाग्य मानि तिहिं लय।।१०॥ अथ कर्दम मसंग । राग बिलावल ॥ कर्दम कह्यो तिन्हें शिरनाई। आज्ञा होइ करौं तप जाई।अभय अछेद रूप मम जान। जो सब घटहै एक समान। मिथ्या तनुको मोह विसारि । जाइ रह्यो भावै गृह दारि॥करत इंद्रिय नि चेतन जोई।मम स्वरूप जानो तुम सोई॥ तनु अभिमान जाको नश जाईसो नर रहै सदा सुख | पाई ॥ जब मम रूप देह तजि जाई । तब सब इंद्री सक्त नशाई ॥ ताको जानि मन वै रहै । देह! अभिमान ताहि नहिं दहै। और जो ऐसी जानै नाहीं । रहै सो सदा काल भय माहीं ॥ यह सुनि कर्दम वनहि सिधाए। वहां जाय हरिपद चित लाए॥ हरि स्वरूप सब घट पुनि जान्यो। ऊंख