पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(४२) सूरसागर। जागै तब सत्त न मान। ज्ञान भए त्योही जगजान ॥चेतन घट घट है या भाई । ज्यों घट घट रवि ॥ प्रभा लखाई ॥ घट उपजो वहुरो नशि जाई । रविनितरहै एकही भाई ॥ जा तनकोहै जन्म | रुमरना । चेतन पुरुष अमर अज वरना ॥ ताको ऐसो जानै जोई। ताके तिनसों मोह न होई ।। जबलौं ऐसो ज्ञान न होई । वर्ण धर्म को तर्जे न सोई॥ संतन की संगत नित करे। पापकर्म मनते परिहरै॥अरु भोजन सो इहि विधि करै । आधा उदर अन्न सों भरै । आधेमें जल वायु समाव। तब तिहिं आलस कबहुँ न आवै ॥ और जु परालब्ध सों औव । ताहीको सुखसों बरतावै॥ बहुतेको उद्यम परिहरै । निर्भय ठौर बसेरोकरै ॥ तीरथहमें जो भय होई । ताहूको तू परिहरै सोई ॥ वहुरो धरै हृदय महँ ध्यान । रूप चतुर्भुज श्यामसुजान ॥ प्रथम चरण कमलको ध्यावै । तासु महातम मनमें ल्यावै ॥ गंगा परासि उनहिको भई । शिव शिवता इनहींसो लही ॥ लक्ष्मी इनको सदा पलोवै । वारंवार प्रीति को जोवै । जंघनको कदली समजानै । अथवा कनक थंभ सम मानै । उर अरु ग्रीव बहुरि हिय धारै। तापर कौस्तुभमणिहि विचारै।भृगुलता लक्ष्मी तहँजानी। नाभि कमल चित धारै ध्यानी।मुख मृदुहास देख सुख पावै । तासों प्रेम सहित मन लावै ॥ नैन कमलदलसे अनियारे । दरशत तिनै कटे दुख भारे॥ नासा | कीर परम अतिसुंदर । दरशत ताहि मिटै दुखद्वंदर ॥ कूप समान श्रीन दोउ जानै । मुख को ध्यान इसी विधि ठाने । केसर तिलकरेख अति सोहै। ताके पटतर को जगको है ॥ मृगमद विंदा तामें राजै । निर्खत ताहि काम सत लाजै । जटित मुकुट पीतावर सोहै । जो देखे ताको मन मोहै । श्रवणनि कुंडल परम मनोहर । नखशिख ध्यान धरै यो उर धर॥क्रम क्रम कार यह ध्यान वढावै । मन कहुँ जाय फेरि तहँ आवै ॥ ऐसे करत मगनहोइ सोई ॥ बहुरो ध्यान सहजही होई ॥ चितवत चलत न चितते टरै॥ सुत त्रिय धनकी सुधि विसमरै ॥ तव आतम घट घट दरशावै । मनहोइ तन मन विसरावै ॥ भूख प्यास ताके नहिं व्यापै । सुख दुख तिनको नहि संतापै ॥ जीवनमुक्ति रहै या भाई। ज्यों जल कमल अलिप्त रहाई ॥१४॥ देवहूतीमन्न सुगम उपाय राग विलानल ॥ देवहूति यह सुनि पुनि कह्यो । देह ममत्व ढेर मुहिरह्यो । कर्दम मोहन मनतें जाई । ताते कहिए सुगम उपाईकपिल कह्यो तोहिं भक्ति सुनाऊं। अरु ताको वेवरो समुझाऊं। मेरी भक्ति चतुर विधि करै । सने सने ते सब निसतरै ॥ जो कोउ दूरि चलनको करै । कम क्रम कार डग डग पग धरै ॥ इक दिन सुर्वहां पहुंचे जाई । त्योमम भक्त मिलै मोहिं आई ॥ चलत पंथ कोउ थाक्यो होई । कहै दूरि डरि मरिहै सोई॥ जोकोउ ताको निकट बतावै । धीरजधरि सुठिकाने आवै ॥ तमोगुणी रिपु मरनो चाहै ॥ रजोगुणी धन कुटुंबअवगाहै ॥ भक्त सात्वकी सेवै संत । लखै तबै मूरति भगवंत ॥ मुक्ति मनोरथ मनमें ल्यावै । मम प्रसादते सो वह पावै । तिगुण मुक्तिहूको नहिं चहै । मम दरशन हीते सुख लहै । ऐसोभक्त सुमुक्त कहावै । सोबहुरचो चलि भवनहि आवै ॥ क्रम कम ही करि सब गति होई । मेरो भक्त नष्ट नहिं होई ॥ १५ ॥ हरिते विमुख होहि नर जोई । मरिके नरक परत है सोई॥तहां जातना बहुविधि पाँवै । पुरपवी- यमिलि तिय गर्भ आवै मिलि रज वीरज ऐसी होई । द्वितियमास शिर धारै सोईतीजे मास हस्त पग होवै ।मास चौथि कटि अंगुरी सोवै॥प्राणवायु पुनि आय सभोवै। ताको इत उत पवन चलावै । पंचम मास हाड़ बल पावै । छठे मास इन्द्री प्रगटावै॥सप्तम चेतनता लहै सोई । अष्ट मास संपूरण || होई । नीचे शिर अरु ऊंचे पाई । जठर अग्नि को व्यापै ताई। कष्ट बहुत सोपावै जहां । पूर्व जन्म |