पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१४१

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(४८) • सूरसागर। बेनके राज्यमें ओपी गिलगई होइहै सकल किरपा तुम्हारी । पर्वतनि जहां तहां रोकि मोकों लियो देह करि कृपा एक दिशा टारी॥ धनुप सो टार पर्वत कियो एक दिश पृथ्वी सम करी प्रजा सब बसाई । सुर ऋपिन नृपति यो पृथ्वी दोहन करी आपुनी जीविका सवन पाई ॥ बहुरि नृप यज्ञ निन्यानवे करी शतयज्ञको जवहिं आरंभ कीनो । इन्द्र भय मान हय गहन सुतसों कह्यो सो न लै सक्यो तब आप लीनो ॥ नृपति सुतसों को जाइ हयल्याव अब इंद्र तिहि देखि हय छांड़ दीनो । नृप कह्यो सुरनके हेतु मैं यज्ञ करत इन्द्रमम अश्व किहि कान लीनो । ऋषिन कझो तुव शतम्यज्ञ आरंभलखि इन्द्रको राज्य हित कॅप्यो हीयो। नृप कह्यो इन्द्रपुरकी न इच्छा मुझे ऋपिन तव पूर्ण आहुती दीयो।यज्ञ पुरुषकह्यो कुंडते निकसि यज्ञ पूर्ण भयो इन्द्र जिमि बर कछू मांगि लीजै । पृथु कह्यो नाथ मेरेन कछु शत्रुता अरु न कछु कामना भक्ति दीजै ॥ यज्ञपुरुप गए वैकुंठ धामै जवे नौति नृप प्रजाको तब हँकारो । तिन्हें संतोषि कयो देहु मांगे मुझे विष्णुकी भक्ति सब चित्त धारो। सुनत यह बात सनकादि आए तहां मानदै कयो मोहिं ज्ञान दीजै । कह्यो यह ज्ञान यह ध्यान सुमिरन यहै निरखि हरि रूप मुख नाम लीजै ॥ पुनि कह्यो देहु आशीश मम प्रजाको सबै हरि भक्ति नित चित्त धारे। कृपा तुम करी मैं भेद को मन धरी नहीं कछु वस्तु ऐसी हमारे॥ बहुरि सनकादि गए आपुने धामको नृपति सब लोग हरिभक्ति लाए । सूरप्रभु चरित अगनित न गने जाँय कछु यथा मति आपुने कहि सुनाए ॥१०॥पुरंजन कथा वर्णन ॥ राग बिलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करों । हरि चरणाविद उर धरों। कथा पुरंजन की अब कहौं। तेरे सब संदेहै दहौं । प्राचिनवर्हि भूप इक भए आयु प्रयंत यज्ञ तिहि ठए ॥ ताके मन उपजी गिल्यान। मैं कीनी बहु जियकी हान ॥ यह मम दोष कवनविधि टरै। ऐसी भांति सोच मन करे । इहि अंतर नारद तहँ आए । नृपसा यो कहिं वचन सुनाए। मैं अवहीं सुरपुर ते आयो। मग में अद्भुत चरित लखायो। यज्ञमाहिं जो पशु तुम मारे। ते सव ठाढे शस्त्रनिधारेजोहतहैं ये पंथ तुम्हारो। अब तुम अपनोआप सँभारो।नृपकझो मैं ऐसोई.कियो। यज्ञकाजमैं तिहि दुख दियो।रसनाही को कारज सारयो। मैं यों अपनो काज विगारयो।।अब मैं यहै विनय उच्चरौं । जो कछु आज्ञाहोइ सो करौंको कहाँ एक नृपकी कथा।उन जो कियो करो तुम तथा ॥ताहि सुनौ तुम भली प्रकार। पुनि मनमें देखो जु विचारता नृपको परमातम मित्र । इक छिन रहै नहीं सो अवाखान पान सो सब पहुँचावे । पै नृप तासों हित न लगावै॥ नृप चौरासि लक्ष फिरि आयो। तब एहि पुर मानुष तनु पायो । पुरको देखि परमसुख लह्यो। रानीसों मिलाप तहां भयो। तिन पूँछयो तुम काकी अही। उन कह्यो मम सुमिरन नहि रही ॥ पुनि कह्यो नाम कहा है तेरो । कह्यो न आवै नाम मोहिं मेरो ॥ तन पुरंजीव पुरजनि राव । कुमति तासु रानीको नाव ॥ आंख नाक मुख मूलद्वार । मूत्र शौच नव पुरको द्वार ॥ लिंग देह नृपको निज गेह । दश इन्द्रियदासीसों नेह ॥ कारण तन सुसैन स्थान । तहां अविद्या नारि प्रधान ॥ कामादिक पांचो प्रतिहार । हैं सदा ठाढ़े दरबार ॥ संतोषादि न आवै पावै । विषयी भोग आइ हरषावै ॥जा द्वारे पर इच्छा होय । रानी सहित जाइ नृप सोइ।।तहां तहांको कौतुक देखि। मनमें पावै हर्प विशेखि॥ इन्द्री दासी सेवा करै । तृप्ति न होइ बहुरि विस्तरै । यहि इन्द्रीको यह सुभाइ। तृप्ति न होइ कि तोई खाइ ॥ निद्रावश जो कवहूं सोवै । मिलि अविद्या सों सुधि बुधि खोवै ॥ उनमत ज्यों सुख । | दुख नहिं जाने । जागे वहै रीति पुनि ठानै ॥ संत दरश कबहूं जो होई । जग सुख मिथ्या जाने । - -