पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१४४

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पंचमस्कन्ध-५ अथ कविवर सूरदास कृत- श्रीसूरसागर. पंचमस्कंध। राग बिलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो । हरि चरणार्विद उर धरो ॥ हरि चरण न शुकदेव शिरनाई। राजा सों वोल्यो या भाई। कहौं हार कथा सुनौ चित धार। जाते तरोउट घि संसार ॥ ज्यों भयो ऋपभदेव अवतार । कहीं सुनो सो अवचितधार शुक वरण्यो जैसे पर कार । सूर कह्यो ताही अनुसार ।। १ ॥ ऋषभदेव अवतार वर्णन | राग बिलावल । ब्रह्म स्वयंभू मनु उपजाया । ताते जन्म प्रियव्रत पायो प्रियव्रतके अग्नीध्र भयो । नाभि जन्म ताही ते लयोनाभि नृपति सुत हित जग कियो । यज्ञपुरुप तव दरशन दियो । विप्रन स्तुति वेद सुनाई। पुनि को सुन त्रिभुवनके राई ।। तुम सम पुत्र नाभिके होई । कह्यो मो सम जग और न कोई।। मैं हर्ता कर्ता संसार । मैं लेहो नृप गृह अवतार॥ऋपभदेव तव जन्मे आई। राजाकेमन भये वधाईबहुरो ऋपभ बड़े जब भए । नाभि राज्य दे वनको गए।। ऋपभ राज परजा सुख पायो॥ यशताको सब जगमें छायो।इन्द्र देखि ई मन लायोकिरिके क्रोध न जल वरखायो।ऋपभदेव तवहीं यह जानि। कह्यो इन्द्र यह कहा मन आनि।निजवल योग नीर वरपायो।प्रजा लोग अतिही सुख पायो।ऋपभ राज मन सब उत्साह । कियो जयंतीसों पुनि व्याहातासों सुत निनानवे भए । भरतादिक सब हरि रंग रए।तिनमें नव नव खंड अधिकारी/नव योगेश्वर ब्रह्म विचारीीअसी और इक द्विज व्रत लियो। ऋपभ ज्ञान सवहिनको दियो । एमान नाश सब होई । साक्षी व्यापक नशै न सोई॥ ताहीसों तुम चित्त लगावहु । ताको सेवि परमगति पावहु|संत संग सेवो हरि चरना । ताते संत संग नित करना।बहुरो देकर भरतहि राज । ऋपभ ममत्व देह को त्याजा।उनमतकी ज्यौं विचरन लागे। अशन वसनकी सुरतित त्यागे । कोउ खवाव तो कछु खाहीं । नातरु वैठेई रहि जाहीं ॥ मूत्र पुरीप अंग लपटावै । सुगंध वास दश योजन जावै ॥ अट सिद्धि बहुरो तहँ आई।ऋपंभदेवपैमुख न लगाई । राजा रहत हुतोतहाएक । भयो सावगीपिको देख ॥ वेद पुराने तजि न अन्हावे । प्रजा सकलको यह सिखाये ।। अवहूं श्रावग ऐसो करै । ताही को मारग अनुसरै ॥ अंतःक्रिया रहित नहिं जान । वाहर क्रिया देखि मन मानै । वरण्यो ऋपभ देव अवतार । सूरदास भागवत अनुसार ॥२॥ जड़ भरत कथा वर्णन । राग बिलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो। हरि चर णाविद उर धरो॥ऋपभ देव जब वन को गए। नव सुत नयो खंड नृप भए । भरत सुभरत खंडको राव । करै सदाहि धर्म अरु न्याव ॥ पालै प्रजा सुतनकी नाई । पुरजन वसैं सदा सुख पाई ॥ भरतहुदे पुत्रनको राज गये वनको तज राजसमाज ॥ तहां करी नृप हरि की सेवा भए प्रसन्न देवन को देवा ॥ एक दिवस गंडकि तट जाई। करनलग्यो सुमिरन चित लाई । गर्भ