पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१४६

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पंचमस्कन्ध-२ लाग्यो करन विचार । हर्प शोक तनुको व्यवहार ॥ जैसो करै सो तैसोलहै । सदा आत्मा न्यारो रहै ।। नृप करो मैं उत्तर नहिं पायो । मेरो कह्यो न मनमें ल्यायो॥ नृप दिशि दोख भरत मुसु काये । वहुरो याविधि कहि समुझाए ।। तुम कहो तैहै बहुत मोटायो । और बहुत मारग नाह आयो॥ टेढो टेढो क्यों तू जात । सुनौ नृपति मोसों यह बात ॥ जिय कर कर्म जन्म बहु पावै । फिरत फिरत बहुते श्रम आवै ॥ अरु अजहूं न कर्म परिहरै । जाते इहिको फिरिवोटर । तनु स्थूल अरु दूवर होइ । परमआत्मकोएनही दोइ ॥ तनु मृथा क्षण भंगुर जानो। चेतनजीव सदा थिर मानो ॥ जीवको सुख दुख तनु सँग होई । जोरविजोरतनके संग सोई ॥देह अभिमानी जीवहिं जाने । ज्ञानी जीव अलिप्तकरि मान ॥ तुम कह्यो मरिवेको तोहि चाह । सब काहूको है यह राह ॥ कहा जानि तुम मोसों कह्यो। यह सुनि ऋषि स्वरूप नृप लह्यो। तजि सुखपाल रह्यो गहि पाइ। मैं जान्यो तुमहौ ऋपिराइ ॥ भृगु कै दुर्वासा तुम होहु । कपिलकै दत्त कहो तुम मोहु ॥ कवहूं सुर कवहूं नर होई । कबहू राव रंक जिय सोई ॥ जीवं कम कार बहु तनु पावै । अज्ञानी तिहि देखि भुलावै ॥ ज्ञानी सदा एक रस जाने । तनके भेद भेदनहिमानै ॥ आत्म सदा अजन्म अविनासी । ताको देह मोह बड़ फासी ॥ ऋपभ पुत्र भरत ममनाम । राज्य छोड़ि लियो वन विश्राम । तहँ मृगछौना सों हित भयो । नरतनु तजिकै मृगतनु लह्यो।अव मैं जन्म विपके पायो । सवतजि हरिचरणन चित लायो॥ ताते ज्ञानी मोहन करै । तनु कुटुंब सों हित परिहरै। जवलगि भजै न चरण मुरारी।तब लगि होइ न भवजल पारीभव जल में नर बहु दुख लहै । पै बैराग तवहुँ नहिं गहै । सुत कलत्र दुर्वचन जुभाषै । तिन्हें मोहवश 'भन नहिं राखै ॥ जो वैवचन और कोउ कहैं । तिनको सुनिकै सहिनहिरहै ॥ पुत्र अन्याय करै बहु तेरे । पिता एक अवगुण नहिं हरै॥ और जुएक करै अन्याई । तिन बहु अवगुण देइ लगाई ॥ इक मन अरु ज्ञानेन्द्री पांच । नरको सदा नचावैनाच ॥ ज्यों मग चलत चोर धनहरै । त्यों एक सुकृत धनहीं परिहरै ॥ तस्कर ज्यों सुकृती धन लेही । अरु हारि भजन करन नहिं देही। ज्ञानी इनसों संग न करैतस्कर जानि दूरि परिहानप यह सुनि भरतै शिरनाई बहुरि कह्यो या भांति सुनाई ॥ नर शरीर सुर ऊपर आहि । कहै ज्ञान कहिए कहताहि ॥ ताते तुमको करत दंडौत । अरु सव नरहूं को परनौत ॥ शुक कोसुन यह नृपति सुजान । लेहु ज्ञान तजि देह अभिमान ॥ जो यह लीला सुनै सुनावै । सोऊ ज्ञान भक्ति को पावै ॥ शुकदेव ज्यों दियो नृपति सुनाइ । सूरदास कह्यो पाही भाइ ॥४॥ इति श्रीमद्भागवते सूरसागरे कविवर श्रीसूरदासकृते पंचमःस्कंधः समाप्तः । -