पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१४९

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सूरसागर। pramodromenomm oscommende E DIODDED नपतिसो कयों इंद्र आइ तब असुर प्रचारयो । कियो युद्ध पै असुर न मारयो । इन्द्र हाथते वज्र छिनाई। मारयो ऐरावतको जाई ॥ ऐरावत घायल जव भयो । तव वृत्तासर को सुख अयो॥ ऐरावत अमृतको ल्याए। भयो सुचेत इंद्र तव धाए ॥ वृत्तासुरको वज्र प्रहारयो। तिन तिरशूल इंद्रको मारयो। लगत त्रिशूल इंद्र मुरझायो।।करते अपनो वज्र गिरायो । कयो असुर सुरपति संभारि ॥ लैकर वज्र मोहिं परिहारि ॥ जो मरिहौं तौ सुरपुर जैहौं । जीते जगत माहिं यश लेहों॥ हारि जीति नहिं जयके हाथ । कारण करता आपहि साथ ॥ हमें तुमें पुतरीके भाइ। देखत कौतुक विविध नचाइ ॥ तव सुरपतिले वज्र संहारयो । जजै शब्द सुरन उच्चारयो॥ पै इंद्रहि संतोष न भयो।ब्राह्मणहत्या दुःखहि तयो।सो हत्या तिहि लागी धाइ। छपो सुकमलना- लमें जाइ ॥ सुरगुरु जाइ तहांते ल्यायो । तासों हरि हित यज्ञ करायो । यज्ञ किए हत्या गई विलाय । यों नृप बहुरि इंद्रपुर आइ ॥ नृप यह सुनि शुकसों पुनि कही। ज्ञान बुद्धि असुरहिको भई । शुक कह्यो सुनो परीक्षितराइ । देहुँ तोहिं वृत्तान्त सुनाइ ॥ चित्रकेतु पृथ्वीपतिराव । भुत हित भयो तासु हित चाव । यद्यपि रानी वरीं अनेक। पै तिहि ते सुत भयो नएकातागृह ऋपि अंगिरा सिधाये । अध्यासनदै तिन वैठाए । ऋपि सो नृप निज व्यथा सुनाई । कह्यो मोहिं सो करो उपाई ॥ऋपि कह्यो पुत्र न तेर होई । होइ कहूं तो दुखदै सोई ॥ नृप को एक बार सुत होई । पाछे होनी होइ सो होई ॥ ऋषि ता नृपसों यज्ञ करायो । दै प्रसाद यह वचन सुनायो॥ जा रानीको तू यह दैहै । तारानी सेती सुत है ॥ तव रानीको सो नृप दियो । तिन प्रणाम करि भोजनकियो॥ ऋषि प्रसाद ते सुत तिन जायो। सुत लड़ाइ दंपति सुखपायो । विप्रया चक न दीनो दान । कियो उत्सव कहा करों बखान ॥ ता रानी सों नृप हित भयो । और तियनिको मन अतितयो । तिन सबहिन करि मंत्र उपाई। नृपतिकुँवर को जहर पिआई ॥ बहुत बेर भइ कुँअर नजाग्यो । दासी सों रानी तव भाष्यो । ल्याव कुंअरको वेगि जगाय । दूध प्यायके बहुरि सोआय ॥ दासी कुँअर जगावनआई। देख्यो कुँवर मृतककी नाई ।। दासी वालक मृतकनिहारी ॥ परी धराण पै खाइ पछारी ॥ रानी तव तहां धाई आई । सुत मृत देखि गिरी सुरछाई । पुनि रानी जब सुरति संभारी । रुदन करन लागी अति भारी ॥ रुदन सुनत राजा तहँ आयो । देखिकुअरको अति दुखपायो ॥ तवही मूर्छित हो नृप गिरे। कबहुँक सुतको अंकम भरे ॥ ऋषि नारद गिरा तहँ आये । राजासों यह वचन सुनाये। कोतू को यह देखि विचार । स्वप्न स्वरूप सकल संसार ॥ सोयो होय होय सत मान । जो जागै सो मिथ्या जानै ॥ताते मृथा मोह विसारि । श्रीभगवान चरण उर धारि॥ हम तुमसों पहिलेही कही। नृप सो बात आज भइ सही ॥ नृपको सुनि उपज्यो वैराग । वनको गयो राज सब त्याग ॥ बनमें जाइ तमस्या करी। मरि गंधर्व देह तिन धरी ॥ इक दिन सो कैलास सिधायो॥ शिवको दरशन तहां न पायो ॥ उमा नग्न देखी तिन जाई । दियो शापताहि या भाई ॥ तू अब असुर देह धरि जाई । मेरो कझो वृथा नहिं जाई ॥ उमाशाप ताको जव भयो । वृत्ता सुरसों याविधि भयो। हरिकी भक्ति वृथा नहिं जाई। जन्म जन्म सो प्रगटे आई ॥ताते हरि गुरु सेवाकीजै । मेरो वचन मानि यह लीजै ॥ ज्यों शुक नृपसों कहि समुझायो । सूरदास त्योंही करिगायो ॥३॥ गुरुम हिमा ॥ राग सारंग गुरु विनु ऐसी कौन करे । माला तिलक मनोहर वाना लै शिर छत्र धरै । भव सागरसे वूडत राखै दीपक हाथ धरै ॥ सूरश्याम शुरु ऐसो समरथ छिनमें लै उधरै ॥४॥ इति श्रीमद्भागवते-सूरसागरे कविवर श्रीसूरदास कृते षष्ठःस्कंधः समाप्तः ॥ ६ ॥