पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१५१

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Dentate- (५८) सूरसागर। होई । सदा एक रस आतम होई ॥ जानि ऐसां तनु मोहै त्यागो । हरि चरणार्विद अनुरागो।। माटी में जो कंचन परे। त्योंही आतमतनु संचरै॥ कंचन ते जो माटी तजै । त्यों तनु मोह छाडि हरि भजे ॥नर सेवाते जो सुख होई । क्षणभंगुर थिररहै न सोई॥ हरिकी भक्ति करो चित लाई । होइ परमसुख कबहुँ न जाई ॥ नीच ऊंच हार गिनत न दोइ । यह जिय जानि भजो सब कोइ ॥ असुर होइ सुरभावै होई। जो हरि भजै पिआरो सोई ॥ रामहिराम कहो दिन रात । नातर जन्म अकारथ जात ॥ सौ वातन की एक बात । सव तजि भजो जानकीनाथ ॥ सब बढ़ियन ऐसी मन आई । रहे सबै हरिपद चित लाई ॥ हरि हरि नाम सदा उच्चाएँ । विद्या और न मनमें धारै ॥ तब संडा मो. संक्याय । कह्यो असुरपति सों पुनि जाय ॥ तव सुतको पठाय हमहारे। आप न प? अरु और विगारे॥राम नाम नित हरटिवोकरें। राजनीति नहिं मनमें धरै ॥ ताते कह्यो तुमैं हम आइ। करनी होय सो करो उपाइ ॥हिरनकशिपु तब सुतहि बुलायो । कछुक प्रीति कछु डर देखरायो । बहुरो गोदमाहि वैगरि । कह्यो कहा पन्यो विद्यासार॥ सार वेद चारोको जोई । छहो शास्त्र सार पुनि सोई । वही पुरातन माहिं जु सार राम नाम मैं पब्योसँभार ॥ कहो याको लेजाइ उचाई । सुमिरत मम रिपुको चितलाई ॥ मेरी ओर न कछू निहारो । याको पावक भीतर डारो ॥ जो ऐसे करते नहिं मरै । डारे देहु गज मैमत तरे। पर्वत से इहि देहु गिराई । मरै जौन विधि मारोजाई।असुर चले तब कुँअर लिवाय हरि जू ताकी करै सहायकर उपाउ सो वृथा जाइ। तृपकी आज्ञालियो उठाइ ॥ कुंअर रह्यो हरि पद चितलाइ । असुरनि गिरिते दियो गिराइ ॥ राखि लियो तिन त्रिभुवन राई । तव गजमैमत आगे डारयो॥ राम नाम तब कुँअर उचारयो । गज दोउ दंत टूटि धर परे। देख असुर यह अचर- जटरै॥ बहुरो नाग दयो हुडकाइ। जिनके ज्वाला गिरि जारि जाइ ॥ हरिजू तहहू करी सहाइ । नाग रह्यो शिर नीचे नाइ ॥ पुनि पावक में दियो गिराय । हरि जू ताकी कियो सहाय ॥ करै उपाइ सु वृथा जाइ । तब सब असुर रहे खिसियाइ ॥ कह्यो असुरपति सों पुनि जाइ । मरत नहीं यह कियो उपाइ। हम तो बहुत भांति पचिहारोयह तोरामहिराम उचारे।नृपको मंत्र यंत्र कछु आहि । के छल करत कछू तू आहि ।।तोको कौन वचावत आइ। सोतू मोकोदेहि वताइ ॥ मंत्र यंत्र मेरे हरि नाम । घट घटमें जाको विश्राम ॥ जहां तहां सोइ करत सहाइ । तासों तेरो कछु न बसाइ ॥ कह्यो कहाँ सो मोहिं बताइ । नातर तेरो जिय अब जाइजो सव और खंभहू होइ । कह्यो प्रह्लाद आहि तू जोहि ॥ हिरण्यकशिपु क्रोध मन धारयो । जाइखंभको मुका मारयो।फटि तव खंभभयो ? फारि॥निकसे हरि नर हरि वपुधारि॥निरखि असुर चकृत लै गयो। बहुरि गदालै सन्मुख भयो॥ हरि तासों कियो युद्धवनाइ । तब सुर मनमें गये डराइ॥ संध्या समय भयो जो आइ।हरिजू ताको पकरयोधाइ॥ निज जांघन पर ताहि पछारयो । नखन साथ तब उदर विदारयो॥ जय जयकार दशौदिश भयो। असुर प्राण ताज हरिपुर गयो । ब्रह्मादिक सब रहे अरगाइ । क्रोध देखि कोउ निकट नजाइ ॥ बहुरो ब्रह्मासुरन समेत । नरहरि जूके जाइ । निकेत।कार दंडवत विनय उचारि। तुम अनंत पराक्रम बनवारि॥ तुमही करत नरकनिस्तार । उ त्पति भरत करत संहार ॥ करो क्षमा कियो असुर संहार। गयो न क्रोध भरो सोभार। महादेव पुनि विनय उचारी । नमो नमो भक्तन भयहारी ॥ भक्त हेतु तुम असुर संहारो। श्री नर- हरि अव क्रोध निवारो ॥ क्रोध न गयो तब ऐसे कह्यो । क्षमो प्रलयको समय न भयो