पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१५५

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(६२)

. सूरसागर। .

गहे करवाए। हत गज शत्रु सूरके स्वामी ताछिन सुख उपजाए ॥६॥ कूर्म अवतार समुद्रमथनं अमृतादि निमित्त ॥ राग विलावल ॥ जैसे भयो कूर्म अवतार । कहौं सुनो सो अवचितधार ॥ नरहरि हिर ण्यकशिपुजव मारयो । अरु प्रहाद राज्य वैठारयो ॥ ताको सुत वैरोचन भयो । ताके बहीर पुत्र बलिहुयो । बलि सुरपतिको बहु दुख दयो । तव सुरपति हरि शरणनि गयो ॥ हरिजू अपनी विरद सँभारयो। सूरज प्रभु कूरमतनु धारयो ॥ ७ ॥ रागमारू ॥ सुरन हेतु हरि कच्छपरूप धारयो । मथनकरि जलधि अमृत निकारयो । चतुर्मुख त्रिदशतय विनय हरिसों करी वलि असुर सों सुरानि दुःख पायो। दीनबंधु कृपाकरन अशरन शरन मंत्र यह तिन निज मुख सुनायो। वासुकी नेति अरु मंदराचल रई कमठमें आपनी पीठ धारयो । असुरसों हेतु कार करो सागर मथन तहां ते अमृत को पुनि निकारयो॥ रत्न चौदह वहरि तहांते प्रगट होहिं असुरको सुरा तुम अमृत प्याऊं। जीतिहो तव महा असुर बलवंतको मरे नाहि देवतायों जिवाऊं। इन्द्र मिलि सुरन बलिपास गयो बहुरि उन कह्यो कहो किहि काज आयो।त्रिदशतब समुद्रके मथनकी वात जो हुतीसो. सकल कहिकै सुनायो॥वलि कह्यो विलंब अब नेकुनहिं कीजिए मंदराचल अचल चलो धाई।दोर इक मंत्रकारि जाइ पहुँचे तहां कह्यो अब लीजिए इहि उँचाई ॥ मंदराचल उपारत भयो बहुत श्रम बहुरिले चलनको जब उठायो । सुर असुर बहुत तागेरही मरिगए दुहूं को गर्व हरि योन शायो।। तव दुहूं ध्यान भगवानको धरि कह्यो विनु तुम्हारी कृपा गिरि नजाई । वाम करसों पक- रिगरुड पर राखिहार क्षारके जलधितट धरयो जाई॥कयों भगवान अब वासुकी ल्याइए जाइ तिहि वासुकीसों सुनायो। मान भगवान आज्ञासुआयो तहां नेतिकरि अचलको समुद्र पायो । मंद. राचल समुद्रमाहि वूड़न लग्यो तब बहुरि सबन स्तुति सुनाई । कूर्म को रूप धरि धरि अचल पीठपर सुर असुर सकल मन भई वधाई॥पूंछको तजि असुर दौरिके मुख गयो सुरन तव पूंछकी ओर लीनीमथतभए छीन तव बहुरिस्तुति करीश्रीमहाराज निज शक्ति दीनी|भयोहलाहल प्रकट प्रथमहीमथत जब रुद्रको दयोतिहि कंठधारी । चंद्रमा बहुरि जय मथत पायो प्रगट सोउकार कृपा दोनो मुरारी॥ कामनाधेनु तव सप्तऋपिको दई लई उन बहुत आनन्द कीने अप्सरा पारजातक धनुप अश्व गज श्वेत ए पांच सुरपतिहि दीने । शंख अरु कौस्तुभमणि लई आप हरि बहुरि पुनि लक्ष्मीदई दिखाई । परमसुन्दर मनो तड़ित है दर्शनी कमलको माल करलएआई ॥ सकल. भूपन मनिन के बने सकल अंग अरु बसन अरुन सुंदर सुहाये । देखि सुर असुर सब दौरि लागे गहन कयो मैं बरखरों आपभाए। जो मुझे चहै मैं ताहि नाही चहौं असुरको राज थिरनाहिं देखों। तपसियन देखि करो क्रोध इनमें बहुत ज्ञानियान में न आचारपेखा ॥ सुरनको देखि कयों ए पराधीन सब देखि विधिको कह्यो यह बुढ़ायो । चिरंजीवनि देखि कह्यो नडराइ . ए लोक तिहुँमाहिं कोउ चित न आयो । वहुरि भगवानको निरखि सुंदर परम कह्यो इहिमाहिहै सवै भलाई। पै न इच्छा इनहै काहू वस्तुकी अरु न ए देखिकै मोहि लोभाई ॥ कवहूं किए भक्ति हके नए रीझि हैं काहूंके वैर ए रीझि जाही। और गुण चाहिए सो सकल हैं इन्हें डारि दई। मालकहि गरे माहीं ॥ हरि कह्यो मम हृदय माहि तुम रहो सदा सुरन मिलि देवदुंदुभी वजाई । धन्य धन कह्यो पुनि लक्ष्मी सो सकल सिद्ध गंधर्व जे. ध्वनि सुनाई. ।। बहुरि धन्वत्रि आयो समुद से निकास सुरा अरु अमृत पुनि संग लायो । भयो आनन्द मुर. असुरको देखिकै असुर कार वलहि अमृत छिनायो । सुरन भगवानसों आइ विनती करी. - -