पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१५९

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. सरसागर। . . . . . . . . .. नभ लै जाव ॥ गंधर्व मेठनि नभ लै धाए । सोवत नृप उरवसी जगाए ॥ मम मेदनिको लै गया | कोई । देखो तुम पुरुषै तिहिं जोई ॥ अर्ध निशा नृप ताको धायो । पै मेदानको कहूं न पायो। इत उत देखि नृपति जव आयो। तब उरवसी यह वचन सुनायो ॥ राजा वचन तुमारो टरयो। ताते मैं तुमको परिहरयो। यह कहिकै सो चली पराय । जैसे तड़ित अकासै जाय ॥ ताके विरह . नृपति वह तयो । नग्न नग्न ता पाछे धयो । भ्रमत भ्रमत नृप वह श्रम पायो । बहुरो कुरुक्षेत्रमें आयो॥ तहां उरवसी सखिन समेत । आइ गई सुस्नान के हेत॥पै उनको कोउ देख नाहि । उनको सकल लोक दरशाहि ॥ उरवसीसों तिलोत्तमा कह्यो । कौन पुरुप तुम भुवमें. लह्यो। ताके देखनकी मोहिं चाह । कह्यो पुरुप वह ठाढ़ा आह ॥ नृपको देखि सु विस्मय भई। कह्यो विरह तोहि नृप सुधि गई ॥बहुत दुखित है तेरे नेह । एक वेर आ दरशन देह ।। तिन माया आकर्षण करी। तब वह दृष्टि नृपतिकी परी ॥ राजानिरखि प्रफुल्लित भयो । मानो मृतक वहुरि जिय लह्यो ॥ उरवसी निकट नृपति चलि आयो । करि विनती यह वचन सुनायो । तैं मोको काहे विसरायो । मैं तुम विनु बहुतै दुख पायो॥ तुम विनु भूख नींद नहिं आवै । पल पल युग सम मोहिं बिहावै।मेरे गेह कृपा करि चलो। वाही विधि मोसों हिल मिलोकरयो नेह हमकामसों आ हिाविना काम हमरे नहिं चाहि ॥ हमसों सहस बरस हित धरै। हम तिहिको छिनमें परिहरै।। विन: अपराध पुरुष हम मारे । माया मोह न मनमें धारे । मैं कहाँ केतौ किन कोई । चाह करन करें हम सोई ॥ नृप पुनि विनती बहु विधि करी । तब उरवसी वात उच्चरी ॥ वर्ष सात बीते हैंौं ऐहों एक रात्रि तोको सुख देहों।वर्ष सप्त बीते सो आईनिरपतिसों मिलि रैन विताई।प्रात होत चलिवे को चोतव राजा तासों यों कह्यो।तू मोको छोड़े कित जात । मोको तुम विनु छिन न विहात।। जव या भांति नृपति बहु कह्यो। तब उरवसी यह उत्तर दयो। यह तो होनहार है नाहीं । सुरपुर छांडि रहौं भुव माहीं ॥ जो तुम मेरी इच्छा धरौ । गंधर्वनीके हित तप करौ । तप कीनेसे हैं. आग। ता सेती तुम कीजो जाग ॥ यज्ञ किये गंधर्वलोक सिधै हो । तहां आइ मोको तुम पै हो। नृप यज्ञ करि ता लोक सिधायो । मिलि उरवसी वहुत मुख पायो | जब या विधि बहु काल.. वितायो। तव वैराग्य नृपति मन आयो।बहुत काल भोग मैं कीए । पै संतोष न आए हीए। श्री नारायणको विसरायो । विषय हेत सब जन्म गवायो॥ या विधि जब विरक्त नृप भयो। छाडि उरवसी वनको गयो । बनमें जाइ तपस्या करी । विषम वासना सव परिहरी ॥ हरिपदसों नृप ध्यान लगायो । मिथ्या तनुको मोह भुलायो । हरि व्यापक सब जगमें जान । हरि प्रसाद पायो। निर्वान ॥ ताते बुधि त्रियसे गति तजै । श्री नारायणको नित भजे ॥ शुक जैसे नृपको समुझायो। सूरदास त्योंही कहि गायो॥१॥ च्यवन ऋषि कथा वर्णन ॥ राग विलावल । शुकदेव कह्यो सुनो हो। राव । जैसो है हरिभक्त प्रभाव ॥ हरिको भजन करै जो कोई । जग सुख पाइ मुक्ति फल सोई॥ च्यवन ऋषीश्वर बहु तप कियो । ता सम और जगत नहिं वियो ॥ वांमी ताको लियो छिपाई। तासों ऋपि नहिं दई दिखाई ॥ ता आश्रम सरजात नृप गये । तहां जाइके डेरा दुये ॥ छोड़ि तहीं सब राज समाज । राजा गयो अखेटक काजः ॥ नृप कन्या तहँ खेलन गई। ऋपि दृग चमकत देखत भई ॥ पै. तिहि ऋपि हग जाने नाहिं । खेलत शूल दये तेहि माहिं ।। रुधिर धार ऋषि. ऑखिन ढरी. । नृपकन्या सुदेखि तब डरी. ॥ शूल व्यथा सब लागेन भई। राजा को कहा भइ दई ॥ तहँके वासी नृपति बुलाये । बूझो तवं तिहि कह्यो।