पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१६०

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नवमस्कन्ध-९ (६७) बुझाये ॥ च्यवन ऋपि आश्रम है इहां राई । करौ वीनती उनसों जाई ॥ नृप खोजत ऋपि आश्रम आयो । ऋपि हग देखत बहुत डरायो॥ कह्यो कियो किन ऐसो काज । कन्या कह्यो सुनौ महाराज ॥ मोते विन जाने यह भई । ऋपिके हगनि शूल हौं दई ॥ नृप मनही मन बहु पछतायो। ऋपि सों पुनि यह वचन सुनायो । महाराज तुम तो हौ साध । ममकन्या तेभयो अपराध ॥ या कन्याको प्रभु तुम वरो । कट शुल कृपा करि हो। लोग सकल नीको जब भयो। नृप कन्या दै गृहको गयो ।। ऋपि समाधि हरि चरण लगाई। कन्या ऋपि हार चरण लव लाई ॥ सुरपति ताके रूप लुभायो । बहुरि कुवेर तहां चलि आयो । पैतिहि दिशि तिन देख्यो नाहीं । गये खिस्याइ दोऊ मन माहीं॥ चौदइवर्ष भये या भाई। तब ऋपि देख्यो शीश उठाई ॥ हाड चाम तनुं पर रहि गये। कृपावंत ऋांप तापर भये । अश्वनी सुत इहि अवसर आयो। कार प्रणाम यह वचन सुनायो।जो कछु आज्ञा मोको होइ । छांडि विलंब करौं अब सोइकियो हगनि को करौ उपाय । तुरत नेत्र तिन दिये वनायकह्यो मैं यज्ञभाग नहि पांवत । वैद्यजानि मोहिं सुर बहरावत।। ऋपि करो मैं करिहों जहां जाग । देहों तोहिं अवश करि भाग ॥ नृपकन्या सों ऋपि यों कह्यो। तुहि ऊपर प्रसन्न मैं भयो । यद्यपि कछु इच्छा नहिं मेरे । तदपि उपाय करौं हित तेरे ॥ दुउ मिलि तीरथ माहिं अन्हाये । सुन्दर रूप दुई जन पाये ॥ दासी सहस प्रगट तहां भई । इन्द्रलोक रचना ऋपि ठई॥तियको सुख ऋषि बहु विधि दियो । तासु मनोरथ पूरण कियो। तव सरजात रानी सों कही । जव ते कन्या ऋपि को दई । तव ते सुधि कुछ नाहीं पाई । विनु प्रसंग तहां गयो न जाई ।। यज्ञारंभ नृपति तहँ गयो। देखि ऋपाश्रम विस्मय भयो ॥ कह्यो यह विभव कहां ते आई । किन यह ऐसी वनत वनाई ॥ इहि अंतर नृप कन्या आई । पिता देखि मिलिवे को धाई ॥ नृप ताको आदर नहिं दियो । ते यह कौन कर्म है कियो । वृद्ध ऋपीश्वर को कहा भयो । कुल कलंक तँ किहि मिलि लयो ॥ कह्यो योग वल ऋपि सब कीनो । मुहिं सुख सकल भांति करि दीनो ॥ नृप प्रसन्न हो ऋपि पै आए । यज्ञ प्रसंग कहिकै गृह लाए । रानी सुता देखि सुख मान्यो धन्य जन्म करि अपनो जान्यो । च्यवन नृपति को यज्ञ करवायो । अश्विनी सुत हितभाग उठायो।इन्द्रकोप है ऋपिसों कह्यो । ताहि भाग तुम काहे दयो। पुनि मारनको वज्र उठायो । पै ऋपिको मारन नहिं पायो॥ इन्द्र हाथ ऊपर रहि गयो। तिन कह्यो दई कहा यह भयो। कह्यो सुरन तुम ऋपिहिं सतायो । ताते कर रहि गयो उचायो । इन्द्र विनय ऋपि सों बहु करी । तब ऋपि कृपा ताहि पर धरी॥ सुरपति कर जब नीचे आयो। अश्विनी सुत बलि सुरमें पायोऐिसो हरिको भक्त प्रभाव । वरनि कहो मैं तुमसों रावाहिरि की भक्ति करै जो कोई । दुहूं लोकको सुख तेहि होई ॥शुक ज्यों नृपसों कहि समुझायो । सूरदास यांही कहि गायो ॥ २ ॥ हलधर विवाह कथा वर्णन ॥ रागभैरों ॥ द्वारावति पति. रेवत राजातासम जग दुनिया न विराजाता गृह जन्म रेवती लयो।ताको लै सु ब्रह्मपुर गयो विधितिहि आदर दै वैठायो। तव नृप मन में अति सुखपायो॥ तहां देखि अप्सरा अखारा । नृप कछु नहीं वचन उच्चारा।।जव अप्सरा नृत्य करि रही। तब राजा ब्रह्मासों कही।मम पुत्री वर प्रापति आहि । आज्ञा होइ देउँ तेहि व्याहि ॥ ब्रह्मा कहयो सुनौ नरनाह । तेनृप तो अब जगमें नाह । हल- धर को तुम देहु विवाह । व्याह योग अब सोई आह ॥ रेवत व्याह कियो जग आइ.। आप कियो तप. बनमें जाइ । हलधर व्याह भयो या भाइ। सूरदास जन दियो सुनाइ॥३॥राना अंबरीपकी कथ, D