पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१६१

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. सूरसागर। . .. ॥ राग विलावळ ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो । हरि चरणार्विंद उर धरो॥ हरि पद अंबरीप ॥ चितलायो। ऋषि शरापते ताहि बचायो । ऋषिको ताप फेरि पठायो । शुक नृपको यो कहि समुझायो।।अंबरीष राजा हरिभक्त । रहै सदा हरिपद अनुरक्त श्रवण कीरत न सुमिरन करै । पद सेवन अरचन उर धरै ॥ वंदन दासीपन सो करै । भक्तन शिष्यभाव अनुसरैकाय निवेदन सदा उचारे। प्रेम सहित नवधा विस्तारै ॥ नवमी नेम भली विधि करै । दशमीको संयम :विस्तरै ॥ एकादशी करै निरहार । द्वादशी पोषै लै आहार ॥ पतिव्रता वा नृपकी नारी। अहनिशिनृपकी आज्ञाकारी । इन्द्री सुखको दोऊ त्याग ॥ धरै सदा हरिपद अनुराग । ऐसी विधिहरि प्रजै सदा हरि हित लावै सब संपदा ॥ राजकाज कछु मन नहिं धरै । चक्र सुदर्शन रक्षा करै ॥ घटिका दोइ द्वादशी जान। ऋषि आयो नृप कियो सन्मान ॥ कह्यो भोजन कीजै ऋषिराई । ऋपि कहो आवतहौं मैं न्हाई ॥ यह कहिकै ऋषि गये अन्हान । काल वितायो करत स्नान ॥ राजा कहै कहा अब कीजै । द्विजनको चरणोदक लीजै ॥ राजा तब करि देख्यो ज्ञान । या विधि होइ न ऋषि अपमानाले चरणोदक निज व्रत साध्यो।ऐसी विधि हरिको अवराध्यो ।। इहि अंतर दर्वासा ।। आए । अंबरीषसों वचन सुनाये । सुन राजा तेरो व्रत टरो । क्योंकर तेरे भोजन करों। कहो नृपति सुनिये ऋषिराई । मैं व्रत हित यह करयो उपाई ॥ चरणोदक लै व्रत प्रतिपारयो। अबलौं अन्न न मुखमें डारयो।षि करि क्रोध इक जटा उचारी।सो कृत्या भइ ज्याला भारी।जब नृप ओर दृष्टि उनकरी । चक्र सुदर्शन सो संहरी ॥ पुनि ऋपिहू को जारन लाग्यो । तब ऋपि आपन जिय लै भाग्यो ॥ ब्रह्मा रुद्र लोकहू गयो । उनहूं ताहि अभय नहिं दयो ॥ बहुरो ऋपि बैकुंठ सिधायो । करि प्रणाम यह वचन सुनायो।मैं अपराध भक्तको कीनो । चक्र सुदर्शन अति दुख दीनो।ओर कहूं मैं ठौर न पायो । अशरण शरण जानिकै आयो। महाराज अब रक्षा कीजै। मोको जरत राखि प्रभु लीजै ॥ हरि जू कह्यो सुनो ऋषिराई । मोपै तुहि राख्यो नहिं जाई । तें अपराध भक्तको कीन । मैं निज भक्तनके आधीन । ममहित भक्त सकल सुख तजै । और सकल तजि मोको भजे ॥ बिन मम चरण न उनके आशा। परमदयालु सदा मम आशा॥ उनके मन नाहीं शत्राई । ताते कहौ उन्हीं पैजाईतुमको लहैं वेइ बचाई । नाहीं या बिन और उपाई ॥ इहां राजा अतिही दुख लयो । ऋषि मम द्वारे ते फिरि गयो ॥ ऋषि मग जोवत वर्ष वितायो । पै भोजन तौह न सिरायो॥ अंबरीप पै तब ऋषि आयो । हाथ जोरि पुनि शीश नवायो ॥ ऋषिहि देखि नृप कहयो या भाई । लेहु सुदर्शन याहि बचाई ॥ ब्राह्मण हरि हरि भक्त पियारो। ताते अब याको मति जारो॥ चक्र सुदर्शन शीतल भयो । अभयदान दुर्वासा लह्यो ॥पुनि नृपतिहिं भोजन करवायो। ऋषि नृपसों यह वचन सुनायो। मैं नाहिं भक्त महातम जान्यो । अवते भली भांति पहिचान्यो ॥ जो यह लीला सुनै सुनावै । सो हरि भक्ति पाइ सुखपावै शुक राजा सोज्यों समझायो। सूरदास त्योंही करि गायो॥४॥ राग गूलरी |फिरत फिरत वल हीन भयो । कहा करों यहि त्रास कृपानिधि जप तपको अभिमान गयो॥धायो धर शर शैल विदिशि: दिशितहां.चक्रहूं चाहि लयो।जासे शिवाविरंचि सुरपति सब काहू नेकन शरन दयो।भाज्यो फिरयो लोक लोकन में पुत्र पुरातन पवनःहयो। सूरदास मुनि दीन जानि प्रभुतब निजजन सन्मुखं पठयो ॥५॥ सौभरि ऋषि कथा वर्णन॥ राग बिलावल ॥ शुकदेव कह्यो सुनोहो राव । जैसे है हरिभक्त प्रभाव हरिको भजन करै जोकोई । जग सुख पाइ मुक्ति लहै सोई । सौभरि ऋपि यमुनातट गयो । तहां - न