पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१६४

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नवमस्कन्ध-९ (७१) - - | रघुवीर ॥ १४॥ अयोध्या वाजत आज वधाई । गर्भ मुच्यो कौशल्या माता रामचन्द्र | निधि आई ॥ गावे सखी परस्पर मंगल ऋपि अभिषेक कराई। भीर भई दशरथके आंगन साम | वेद ध्वनि गाई ॥ पूछत ऋपिहि अयोध्याको पति कहि हो जन्म गुसाई । बुद्धवार नौमी तिथि नीकी चौदह भुवन बड़ाई ॥ चारि पुत्र दशरथ के उपजे तिहूंलोक ठकुराई । सदा सर्वदा राज राम को सूरदादि तहां पाई ॥ १५ ॥ रघुकुल प्रगटे हैं रघुवीर । देश देश ते टीका आयो रतन कनक मनि हीर ॥ घर घर मंगल होत वधाई अति पुरवासिन भीर । आनंद मगन भये सब डोलत कळू न शोध शरीर ॥ मागध वंदी सूत लुटाए गउ गयंद हय चीर । देत अशीश सूर चिरजीयो रामचन्द्र रणधीर ॥ १६॥ शर क्रीडा वर्णन । राग बिलावल ॥ करतल सोभितः वान धनुहियां । खेलत फिरत कनक मय आंगन पहिरे लाल पनाहियां ॥ दशरथ कौशल्या के आगे लसत सुमन की छहियां । मानो चारि हंस सरवर ते बैठे आइ सदहियां ॥ रघुकुल कुमुद | चंद चितामणि प्रगटे भूतल महिया। यह देन आए रघुकुल को आनंद निधि सव गहियां ॥ ये सुख तीनि लोकमें नाहीं जो पाए प्रभु पहियां । सूरदास हार वोलि भगतको निरवाहतदै बहियां ॥१७॥ राग विलायलाधनही वान लये कर डोलत । चारोबीर संग इक सोहत वचन मनोहर बोलत लछिमन भरत शत्रुधन सुंदर राजिवलोचन राम । अति सुकुमार परम पुरुपारथ मुक्ति धर्म धन काम।। कटि पट पीत पिछोरी बांधे काग पच्छ शिप शीश । शर क्रीड़ादिन देखत आवत नारद- सुर तैतीस ॥ शिवमन शोच इन्द्रमन आनंद सुख दुख ब्रह्म समान ॥ दिति दुर्वल अति || अदिति हृष्ट चित देखि सूर संधान ॥ १८ ॥ विश्वामित्र यज्ञ रक्षा ताडका वध सीतास्वयंवर । घन । ॥ राग सारंग ॥ दशरथसों ऋपि आनि कहो । असुरन सों यज्ञ हौन न पावत राम लछन तव संग |. दयो । मारि ताड़का यज्ञ करायो विश्वामित्र आनंद भयो । सीय स्वयंवर जानि सूर प्रभुको ऋपिलै ता और गयो॥ १९॥ सीतापति दर्शन ॥ राग बिलावला देखनको मंदिर आनि चढ़ी । रघुपति पूरनचंद विलोकत मानो उदधि तरंग वढी ॥ पिय दरशन प्यासी अति आतुर निशिवासर गुन आन रढी । तजि कुलकानि पीय मुख निरखत शीशनाइ आशीश पढ़ी ॥भई देह जो खेह करम- वश ज्यों तट गंगा अनलदढी । सूरदास प्रभु दृष्टिं सुधानिधि मानो फेरि बनाइ गढ़ी ॥ २० ॥ सीता मनोरथ पूरण ॥ राग सारंग ॥ चितै रघुनाथ बदनकी ओर । रघुपतिसों अब नेम हमारो विधि सों करति निहोर ।। यह अति दुसह पिनाक पिताप्रण राघव वयस किशोर । इहते दरिघ धनुप चढे क्यों यह सखि संशयमोर ।। सिय अंदेश जानि सूरज प्रभु लियो करजकी कोर । टूटत धनु नृप लुके जहां तहां ज्यों तारागण भोर ॥ २१॥ दशरय को जनकपुर आगमन रामनूफे विवाहहेतु ॥ महाराज दशरथ तहँ आये । ठाढे जाय जनक मंदिरमें मोतिन चौक पुराये ॥ विप्र लगे ध्वनि वेद उचारन युवतिन मंगल गाये। सुर गंधर्वगन कोटिक आए गगन विमानन छाये ॥ राम लक्ष्मण भरत शत्रुधन व्याह निरखि सुखपाये । सूर भयो आनंद नृपतिमन दिवि दुंदुभी बजाए ॥ २२ ॥ कंगना खोलन ॥ राग आसावरी ॥ कर कंप कंगन नहिं छूटै । राम सुपरस मगन मय कौतुक निरखि सखी सुख लूटै ॥ गावत नारि गारि सब दैदै तात भात की कौन चलावै । तब कर डोर. छुटै रघुपति जू जो कौशल्या माइ बुलावै ॥ पुंगीफल युत जल निर्मल धरि आनी भार कुंडी जु कनककी । खेलत जूप युगल युवतिनमें हारे रघुपति जीति जनककी ॥धेरे निशान अजिर गृह मंगल विप्रवेद अभिषेक करायो । सूर अमित आनंदकुशलपुर सोई शुकदेव पुराणनि गायो॥२३॥