पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१६७

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__.. . मरसागर।.. प्रति । रांग रामकली ॥ मेरी नवका जिन चढौ त्रिभुवन पतिराई । मो देखत पाहन उड़े मेरी काठ कि नाई ॥ मैं खेवीही पारको तुम उलटि मँगाई । मेरो जिय योंही डरै मति होहि शिल्हाई ॥ में निर्वल मेरे बलनहीं जो और गढाऊँ । मेरो कुटुंब माही लग्यो ऐसी कहां पाउँ॥. मैं निर्धन मेरे धन नहीं परिवार घनेरो। सेमर ढाक पलाश काटि बांधो तुम बेरो॥धार बार श्रीपति कहै केवट नहिं मानै । मन परतीति न आवै उडतीही जानै ॥ नियरेही जल थाह है चलो तुमैं . बताऊँ । सूरदासकी वीनती नीके पहुचाऊं ॥ ४० ॥ पुरवासी वचन जानकी मति . सखारी कौन तिहारी जात । राजिव नैन धनुष कर लीने वन मनोहरगात ॥ लजित रही पुर वधू पूछे अंग अंग मुसक्यात । अति मृदु वचन पंथ बन विहरत सुनियत अद्भुत बात ॥ सुन्दर. नैन कुँवर सुन्दर दोउ सुर किरन कुम्हिलात । देखि मनोहर तीनो मूरति त्रिविध ताप तनुं जात ॥४१॥ सीता सैन, पति नतावन । राग धनाश्री ॥ कहि धौ सखी बटोहीको हैं । अद्भुत वधू लये संग डोलत देखत त्रिभुवन मोहैं ॥ परम सुशील सुलक्षण जोरी विधि की रची न होई । काकी अब उपमा यह दीजै देह धरेधौं कोई ॥ इहि में को पति त्रिया तुम्हारो पुरजन पूछ धाई । राजिवनैन मैनकी मूरति सैनन माहिं बताई ॥ गए सकल मिलि संग दूरि लों मन न फिरत पुरवास। . सूरदास स्वामीके बिछुरत भरि भार लेत उसास ॥ ४२ ॥ दशरथ माणतजन श्रीरामहेतु ॥ तांत वचन रघुनाथ जबै बन गौन कियो। मंत्री गयो फिरावन रथ लै रघुवर फेरि दियो । भुजा छुड़ाइ तोरि तृण ज्यों हित करि प्रभु निठुर हियो । सुरत साल ज्वाला उर अंतर ज्यों पावकहिं पियो ॥ यह सुनि तात तुरत तनु त्यागो विछुरत तात वियो । इहि विधि विकल, सकल पुरवासी नाही चहत जियो ॥ पशु पंछी तृण कण त्याग्यो अरु बालक पय न पियो ।. सूरदास सियनाथ बोल हित पतिव्रत सुख जु कियो॥४३॥ राजाको तेल घट स्थापन, मंत्रीगमन भरत निकट । राग सारंग ॥ राजा तेल द्रोनि में डारे । सात दिवस मारग में बीते देखे भरत पियारे॥ जाइ निकट हिय लाइ दोउ शिशु नैन उमग जलधारे । कुशल छेम पूँछत कौशल्या राजा कुशल तिहारे॥ कुशल राम लछमन वैदेही ते हैं प्राण हमारे। कुशलक्षेम अवधक पुरजन दासि दास प्रतिहारे । कुशल राम लछमन वैदेही तुम हित काज हँकारे । सुर सुमंत ज्ञानि ज्ञानद्धत महिमा ममय विचारे॥४४॥ कौशल्या विलाप, भरत आवन, माता पर अतिक्रोध । राग गूगरी ॥रामहिं राखौ कोऊ.. जाई । जवलौं भरत अयोध्या आवै कहत कौशल्या माई ॥ पठवी दूत भरतको ल्यावन वचन कयो शिरनाई । दशरथ वचन राम वन गवने यह कहियो अस्थाई ॥ आए भरत दीनदै बोले कहा कियो कैकयि माई । हम सेवक वा त्रिभुवनपतिके सिंहहि बलि कौवा क्यों खाई ॥ आजु अयोध्या जल नहिं अचवों ना मुख देखौं माई । सूरदास राघवके बिछुरे मरों भवन दौलाई ॥४६॥ भरत शत्रुघ्न वचन माता मति । राग केदारा ॥ तें कैकयी कुमंत्र कियो। अपने मुख करि कालं. कारयो हठ करि नृप अपराध लियो॥ श्रीपति चलत रह्यो कहि कैसे तेरो पाहन कठिन हियो। हम अपराधिनके हित कारन तैं रामहि वनवास दियो । कौन काज यह राज हमारे इहि पावक परि कौन जियो । लोटत सूर धरणि दोउ बंधू मनो तपत विप विषय पियो॥४६॥ राग सोरठः॥ राम कहां गएरी माता । सूनो भवन सिंहासन सूनो नाही. दशरथ ताता ॥ धिग तेरोजन्म जिवन धृग तेरो कही कपट मुख वाता। सेवक राज साहिव बन पष्ये यह कब लिखी विधाता ॥ मुखाविंद हम देखि जीवते ज्यों चकोर शशिराता सूरदास कौशल्यानंद बन कहा अयोध्या तेरो नाता॥४७,