पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१६९

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(७६) .... सूरसागर। .. पांति पांति सुन्दर मनु कंचनकीहै लता बनाई।बार वार शोकादिकके तरु प्रेम प्रीति सींचे रघुराई। अंकुर मूल भए सो पोषै कर्म भोगफल लागेआई।मृग स्वरूप मारीच धरयो तव फेरि चल्यो मारग ज दिखाई। श्री रघुनाथ धनुषकर लीनो लागत वाण देवगति पाई॥टेर लपणसुनि विकल जानकी अति आतर उठि धाई। रेखा खेंची बार वधनकी हा रघुवीर कहांहो भाई॥रावण तुरत विभति लगाए कहत हस्त भिक्षा दै माई । दीन जानि सुधि आनि भजनकी प्रेम प्रीति भिक्षा ले जाई। हरि साता लै चल्यो डरत जिय मानो रंक महानिधि पाई ॥ सूर संग पछतात यहै कहिकर्मदशा मेटी नहिं जाई ॥५६॥राम स्वरूप वर्णन॥ मृग पाछे धावन समय ॥ राग सारंग ॥ राम धनुष अरु- सायक साधे । सियहित मृग पाछे उठिधाए बसन बहुत ढिग वांधे ॥ नव घननील सरोज वरण वपु विपुल बाह क्षत्री गुन कांधे ॥ इन्दु बदन राजीव नैन वर शीश जटा. शिवसम शिरवांधे । पालत सजत संहारत संतत अंड अनेक अवधि पल आधे ।। सूर भजन महिमा दिखरावत इमि अति सुगम चरण अवराधे ॥६७ ॥ सीता छाया हरन राघव गिसे युद्ध ॥ राग मारू ॥ इहि विधि वनवसे रघुराइ । डासिकै तृण भूमि सोवत द्वमनिके फल खाजगत जननी करी बारी मगा चरि चरि जाइ। कोपिके प्रभु बान लीनो तबहिं धनुष चढाइ ॥ जनकतनया धरि अगिनिमें छायारूप बनाइ । इहकोऊ नहिं भेदजाने बिना श्री रघुराइ॥कह्यो अनुजसोरहो यहां तुम छोड़ि जिनि कहु जाइ। कनक मृग मारीच मारयो गिरयो लक्षण सुनाइ।।खोदि दई सुरेख सीता कह्यो सु कह्यो न जाइतवहिं निशिचर कियो यह छल लियो सीय चुराइगिद्ध ताको देखि धायोलख्यो सूरवनाइकटे पंख गिरयो असर तब गयो लंका धाइ९८अशोकवन में सीताको स्थापन । राग सारंग वन अशोकमें जनकसुताको रावण राख्यो जाइ।भूखरु प्यास नींद नहिं आवै गई बहुत मुरझाइ। रखवारीको बहुत निशिचरी दीनी तुरतपठाइ॥ सुरदास सीता तेहि निरखत मनही मन सकुचाइ ॥ ५९॥ राम विलाप सीता वियोग ॥ राग केदारा॥ ॥ रघुपति कहि प्रियनाम पुकारताहाथ धनुष लै मुक्त मृगाहिं किये चकृत भये दिशि विदिश निहारत।। निरखत सून भवन जड़ है रहे खन लोटत घर वपु न सँभारत। हासीता सीताकहि श्रीपति उमगि नयनजल भरि भरि ढारत ॥ लागि शेष उर विलखि जगत गुरु अद्भुतगति नहिं परत विचारत ॥ चेतत चेतत सूर सीता हित मोह मेरु दुख टरत न टारत।।६०॥सुनो अनुज इहिवन इतननि मिलि जानकी प्रियाहरी । कछु इक अंगनिकी सहिदानी मेरी दृष्टि परी ॥ कंटिकहरि कोकिल वाणी अरु शशि मुख प्रभाखरी । मृगमूसी नैननिकी शोभा जाति न गुप्तकरी ॥ चंपक वरन चरन करि. कमलनि दाडिम दशन लरी। गति मराल अरुबिंब अधर छवि अहि अनूप कवरी ॥ अति करुणा रघुनाथ गुसाई युगभर जात घरी ॥ मूरदास प्रभु प्रिया प्रेम वंश निज महिमा. विसरी ॥ ६॥ फिरत प्रभु पूछत वन दुम बेली । अहो बंधु काहू अवलोकी इहि मग बधू अकेली ॥ अहो विहंग अहो पन्नगं नृप या.कंदरके राई । अबकी बार मम विपति मिटाओं जानकी देह बताई ॥ चंपक पुहुप बरन तनु सुन्दर मनो चित्र अवरेखी। हो रघुनाथ निशाचर के संग चली जाति हौं देखी ॥ यह सुनि धावत धरनि चरनकी प्रतिमा खगी पंथ में पाई। नैन नीर रघुनाथ सानिकै शिव ज्यों गात चढाई ॥ कहुँ हियहार कहूं कर कंकन कहुँ अंचर कहुँ. चीरा । सूरदास वन बेन अवलोकत विलखि बदन रघुवीरा ॥ १२॥ रामजीको गृध्र सों मिलाप गिताको समाचार श्रवण ॥ राग केदारा ॥ तुम लक्ष्मण या कुंज कुटीमें देखो नैन निहारिः । हम देखि जीव नाम मम लैलै उठत, पुकारि पुकारि ॥ इतनी कहत कंध ते करगहि लीनो । D