पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(७८) सुरसागर । . . . . . . - जसवंत । यादल मध्य प्रगट केशरि सुत जाहि नाम हनुमंत ॥ वहै लाइ है सिय सुधि छिनमें ! अरु आइ है तुरंत । उन प्रभाव त्रिभुवन को पायो वाके बलहिं न अंत ॥ जो मन करे एक वासर में छिन आवै छिन जाइ । स्वर्ग पताल महागम ताको कहिये कहा बनाइ ॥ केतिक लंक. उपारि वामकर लै आवै उचकाइ । पवनपुत्र बलवंत वज्र तन काके होय समुदाइ ॥ लियो । बुलाय मुदित चित है के बच्छ तंवोलहिं लेहु । ल्यावहु जाइ जनकतनयासुधि रघुपतिको सुख देहु ॥ पौरि पौरि प्रति फिरौ विलोकत गिरि कंदर वन गेह। समय विचारि मुद्रिका दीजो सुनौ मंत्र. सुत येह ॥ लयो तंबोल माथ धरि हनुमत कियो चतुर्गुन गात । चढ़ि गिरि शिखर शब्द इक.. उचरयो गगन उठ्यो आघात ॥ कंपत कमठ शेप वसुधा नभ रवि रथ भयो रतपात । मानो पच्छ सुमेरहि लागे उड्यो अकासहि जात ॥ चकृत सकल परस्पर वानर वीच करी किलकार। तहां इक अद्भुत देखि निशिचरी सिरसा सुख विस्तार ।। पवनपुत्र मुख पैठि पधारे तहां लगी कछु वार । सूरदास स्वामी प्रताप वल उतरयो जलनिधि पार ।। ७२ ॥ हनुमत लंका दर्शन: सीता मिलाप हित अशोकचन प्रवेश । राग धनाश्री ॥ लखि लोचन सोचे हनुमान । चहुँ दिशि लंक दुर्ग. दानव दल कैसे पाऊं जान ॥ सौ योजन विस्तार कनक परि चकरी योजन वीस । मनो विश्वकर्मा कर अपुने । रचि राखी गिरि शीशागरजत रहत मत्त गज चहुँ दिशि छत्र ध्वजा चहुं दीस। भरमत भयो देखि मारुतसुत दुई महावल ईश ॥ उडि हनुमंत गयो आकासहि पहुँच्यो नगर मॅझारि । वन उपवन गम अगम अगोचर मंदिर फिरयो निहारि ॥ भई पैज अब हीन हमारी जिय में करें । विचारि । पटकि पूंछ मायो ध्वनि लौटै लखी न राघव नारि ॥ नाना रूपं निशाचर: अद्भुत सदा करत मद पान । ठौर ठौर अभ्यास महामल नटपेपने पुरान ॥जिय जिय शोच करत मारुतसुत जियत न मेरेजानाकै वह भाजि समुद्रमें चूड़ी के उन तज्यो पिरान कैसे नाथ बदन दिसराऊं जो विन देखे जाउँ वानर वीर हँसेंगे मोसों तें गोरयो पितु नाउँ ॥ते.सव तर्क बोलि हैं मोको तासों बहुत डराउँ । भली रामको सिया मिलाऊं जीति कनकपुर गाउँ । जबः ।। मोहिं अंगद कुशल पूछिहै कहा कहौंगो वाहि । या जीवनते मरन भलोहै मैं देख्यों अवगाहि ॥ मारौं आजु लंक लंकापति लै दिखराऊं ताहि । चौदहसहस अंतःपुर ते लेहैं राघव चाहि ॥ बहुरि वीर जब गयो अवासहिं जहां बसै दशकंध । कनक जटिमणि खंभ वनाए पूरण वाससुगंधा।। श्वेत छत्र फहरात शीशपर मनो लच्छको बंध । चौदहसहस नागकन्या रति परचो सुरत मत । अंध ।। वीणानाद पखावज आवज और राजको भोग। पहप प्रयंक परी नव योवन सुख परिमल रस जोग ।। जिय जिय गट्टै करै विश्वासहि जानै लंका लोग । इहि सुख सेज परीहै सीता राघव विपति वियोग । वैठयो जाइ एक तरुवर पर जाकी शीतल छांहि ॥ बहु निशाचरी मध्य जानकी । मलिन बसन तनु माहि। पुनि आयो सीता जहां बैठी वन अशोकके माहिं । चारहु ओर निशिचरी घेरेनर जेहि देखि डराहि ॥वारंवार विसरि सूर दुख जपति नाम रघुनाह । मलिन अर्थपट देखि बदन पर चंद्र गह्योज्यों राह||७३॥ आकाश वापी हनूमति, सीय निश्चय, । रागमारू |गयादिहनुमंत ज़ब सिंधुपारा । शेपके शीश लागे कमठ पीठिसोधस्यो गिरिवर सबै ता संभारा।शोच लाग्यो करन यह थौं जानकी कै कोऊ और मोहिं नहिं चिन्हारालिंकगढ़ माहिं आकास मारग गयो चंहूदिश वबलाग किंवारा।पौरि सब देखि आशोक वनमें गयो निरखि सीता छप्यो वृक्षडाराांसुर आकाशवाणी भई . तब तहां है यह है यह करि जुहारा॥७॥ निशिचरी रावण उड़ाई, सीता की निंदा ।समुझि अब निरखि -