पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१७८

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H नवमस्कन्ध-९ (4) इनूमानका निन पराक्रम युद्ध निमित्त कयन ॥ राग मारू ॥ रावण से गहि कोटिक मारों । जो तुम आज्ञादेहु कृपानिधि तो एह पर संसारो। कहो तु जननि जानकी ल्याऊं कहो तु लंक उदारों। कहो तु अवहीं पठि सुभट हति अनल सकल प्रजारों ॥ कहो तु सचिव सबंधु सकल अरि एकहि एक पछारों । कहो तु तुम प्रताप श्रीरघुवर उदधि पपाननि तारोकहो तु दशो शीश वीसोभुज काटि छिनकमें डारौं । कहो तु ताको तृण गहाइकै जीवत पाइन डारों ॥ कहो तु सेना चारि रचों कपि धरनी व्योम पतारों । शैल शिला दुम वरपि व्योम चदि शत्रु समूह संहारों॥ वारवार पद परसि कहतहों ही कवहूं नाहं हारों । सूरदास प्रभु तुमरे वचन लगि शिव वचनन को टारों ।। ॥१०६॥ अन्यच ॥ राग मारूह हरिजूको आयसु पाऊं । अवहीं जाइ उपारि लंगगढ़ उदधि पार लै आऊं ॥ अवहीं जंबूद्वीप इहांते ले लंका पहुँचाऊं। सोखि समुद्र उतारों कपिदल छिनक विलंब न लाऊं ॥ अव आवै रघुवीर जीति दल तो हनुमंत कहाऊं । सूरदास शुभ पुरी अयोध्या राघव सुयश वसाऊं ॥ १०७॥ सिंधु सेतु निमित्त हनुमान विनय ॥ राग सारंग ।। रघुपति वेगि जतन अय कीजावां सिंधु सकल सेना मिलि आपुन आयसु दीजे॥तवलगि तुरत एकतोबांधौ द्रुम पापाननि छाई । द्वितिय सिंधु सिय नैन नीरव जवलों मिलेन आई।यह विनती हों करों कृपानिधि वारवार अकुलाई सूरजदास अकाल प्रलय प्रभु मेटो दरश दिखाई ॥ १०८ ॥ सीतादेन निमित्त विभीषन वचन रावण मति || राग मारूणालंकपतीको अनुज शीशनायो । परमगंभीर रणधीर दशरथ तनय कोपि करि सिंधुके तीर आयो । सीयको ले मिलो यह मतो है भलौ कृपा कार मम वचन मानि लीजै । ईशको ईश करतार करुणामयी तासु पद कमल पर शीश दीजीको लंकेश दे शीशपग तिसीके जाहि मत मृढ कायर डरानो। जानि अशरण शरण सरके प्रभूको तुरंतहि जाइ द्वारे वुझानो॥ ॥१०९॥ रामनन्दसों विभीषण मिलाप । राग सारंग ॥ आइ विभीपण शीशनवायो । देखत ही रघुवीर धीर कह लंकपती तिहि नाम बुलायो । कह्यो सुबहरि को नहि रघुवर यह विरद चलि आयो । भक्तवछल करुणामय प्रभुको सूरदास यश गायो॥ ११० ॥ सभाभध्य श्रीरामचन्द्र वचन । राग मारू || तब ही नगर अयोध्या जहों । एक बात सुन निश्चय मेरी रावण राज्य विभीषण देहों। कपिदल जोर ओर सब सेना सागर सेतु बंधेहों । काटि दशौशिर बीस भुजा तब दशरथ सुत जु कहहीं ॥छन इक माहिलंक गढ तोरों कंचन कोट ढदेहों । सूरदास प्रभु कहत विभीपण रिपुदति सीता लेहो।।१११॥ सिप दे मिलन निमित्त मंदोदरी शिक्षा रावण मति॥राग मारूगावे देखि आयेराम राजा । जलके निकट आइ भये ठाढे दीसत विमल ध्वजा ॥ सोवत कहा चेतहो रावण मैं जु कहति कत खात दगा। कहति मंदोदरी सुनु पिय रावण मेरी बात अगा। तृण दशनन लै मिल दशकंधर कंठहि मेलि पगा । सूरदास प्रभु रघुपति आये दहपट होइ लंका॥ ११२ ॥ अन्यच । शरण परि मन वच कर्म विचारि। ऐसो कौन और त्रिभुवन में जो अब लेइ उवारि ॥ सुनि शिप कंत दंत तृण धार के स्यो परिवार सिधारो। परम पुनीत जानकी संग ले कुल कलंक किन टारो॥ ये दशशीश चरण तर राखो मेटो सब अपराध । महाप्रभु कृपाकरन रघुनंदन रिस न गहें पल आध ॥ तोरि धनुप मुख मोरि नृपनि को सीय स्वयंवर कीनो। छिन इकमें भृगुपति प्रताप वल करापि हृदय धरि लीनो । लीला करत कनकमृग मारयो वध्यो पालि अभिमानी । सोइ दशरथ कुलचन्द अमित बल आए सारंगपानी ॥ जाके दल सुग्रीव सुमंत्री प्रबल यूथपति भारी । महासुभट रणजीत पवनसुत बड़ो वज्र वपुधारी ॥ करिहै लंक पंक छिन भीतर वत्र A...ADA - - - -- - - -- - - - - - - - - - - - -- - - - -- - -