पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सूरसागर। .. . | शिला लै धावै । कुल कुटुंब परिवार सहित तुहिं वांधत विलम न लावै ॥ अजहूं जिन वल | कर शंकर को मान वचन हित मेरो।जाइ मिलो कौशल नरेशको भ्रात विभीषण तेरो । कटक सोर अति दरिदशो दिश देखत वनचर भीर। सूर समुझिरघुवंश तिलक दोउ उतरे सागर तीर ॥१३॥ अन्यच ॥काहे परतिरिया हरि आनी। यह सीता जू जनक की कन्या रमा अपुन रघु नंदन रानी ॥ रावण मुग्ध कर्मको हीनो जनकसुता नै त्रिय कार मानी । जाके क्रोध भूमि जल. पटके कहा कहेगो सिंधुज पानी ॥ मूरख सुखहिं नीद नहिं आवै लेहैं लंक वीस भुज भानी। सर. न मिटत भाग की रेखा अल्प मृत्युतेरी आइ तुलानी ॥ ११४ ॥ अन्यच । रागमारू ॥ तोहिं कौन मति रावण आई । आजु कालि दिन चारि पांचमें लंका होति पराई ॥ लंका कोट देखि जिन गर्वहि अरु समुद्र सी खाई। जाकी नारि सदा नव यौवन सो क्यों हरै पराई ॥ जाके हित सीताप ति आये राम लक्षण दोउ भाई। सूरदास प्रभु लंका तोरै फेरै राम दुहाई ॥ ११ ॥ मंदोदरी रावण संवाद । राग मारू ॥ आयो रघुनाथ वली सीख सुनो मेरी । सीता ले जाइ मिलो पति जु रहै तेरी ॥ तैं जु बुरे कर्म किये सीता हरि ल्यावो । घर बैठे वैर कियो कोपि राम आयो । चेतत क्यों नाहिं मूढ एक बात मेरी । अजहूं सिंधु नाहिं बंध्यो लंका है तेरी ॥ सागर को पाजि बांधि पार उतरि आ३ । देखि त्रिया करिकै वल करिणी दिखरावै ॥ रीछ कीश वश्य करौं रामहि गहि ल्याऊं ॥ जानति हौं वल वालि सों नछूटि पाई। तुम्हें कहा दोप दीजै काल अवधि आई॥ बलि जव बहु यज्ञ करे इन्द्र सुनि सुखायो । छल करि लई छोनि मही वामन द्वै धायो ॥ हिरणकशिपु अतिप्रचंड ब्रह्मा वर पायो। नरसिंह रूप धरे छिन न विलम, लायो ॥ पाहन सों वांधि सिंधु लंका गढ़ तौरै । सूरदास मिलि विभीषण राम देहि फोरै ॥ ११६ ॥... सेतुबंध आरंभ सिंधुमिलन ॥ राग धनाश्रीरघुपति चन्द्र विचार करयो। नातो मानि सगर सागर सों कुश साथरे परयो। तीनि याम अरु बासर बीते सिंधु गुमान भरयो कीन्यो कोप कुवर कमला पति तव कर धनुष धरयो । ब्रह्म भेष आयो अति व्याकुल देख्योवान डरयो । दुम पपान प्रभु वेगि मँगायो रचना सेतु करयो॥ नल अरु नील सुत विश्वकर्माके छुक्त पषान तरयो। सूरदास स्वामी प्रतापते सब संताप हरयो । ११७ ।। सेतु बंधन। राग मारू ॥ आपुन तरि तरि औरन तारतं असम अचेत पाषाण प्रगट पानी में वनचर डारत ॥ इहि विधि उपलैं सुतरु पात ज्यों यदपि सेन अति भारत खुड़ि न सकेतु सेतु रचनारचि राम प्रताप विचारताजिहि जल तृण पशु वार बडि आपुन सँग औरन बोरतातिहि जल गाजत महावीर सब तरत अंग नहिं मोरतारिघुपति चरण प्रताप प्रगट सुर व्योम विमाननि गावत । सूरदास क्यों बूड़त कलयू नाउ न बूड़न पावत ॥१८॥ (लंकाकाण्ड) रावण दूत ग्रहण,पहिरावनि दे विदाकरन । राग सारंग।। शुक सारन दै दूत पठायोवानर वेष फिरत सेना में सनत विभीषन तुरत बँधाये ॥ बीचहि मार परी अतिभारी राम लछन जव दरशन पाये। दीन दयाल विहाल देखिकै छोरीभुजा कहांते आयोहिम लंकेश दूत प्रतिहारी समुद्र तीरको जांत अन्हाये। सुर कृपालु भये करुणामय आपुन हाथ दूत पहिराये ॥ ११९॥ राम सागर संवाद, रावणं दूत पुनः लंका गमन, युद्ध निमित्त कुंभकर्ण मंत्र । राग धनाश्री ॥ रघुपति जवै सिंधु तट आये। कुश साथरी वैठि इक आसन बासर तीनि गवाये ॥ सागर गर्व धरयो उर भीतर रघुपति नर करि जान्यो । तव रघुवीर तीर अपने कर अग्नि. वरण गहि तान्यो । तव जलधर खरभरो त्रास गहि जंतु.उठे अकुलाई । कलो न नाथ वाण मोहि जारयो शरण परयो हों आई.॥: -