पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नवमस्कन्ध-९ - आज्ञा होइ एक छिन भीतर जल दश दिशि करि डारौं । अंतर मारग होइ सवनि को इहि विधि पार उतारों ॥ और मंत्र जो करै देवमणि वांधी सेतु विचार । दीन जानि धरि चाप विह- सिकै दियो कंठते हार ॥ यह मंत्र सबहिन मन आयो सेतु बंध प्रभु कीजे । सब दल उतार होइ पारंगत ज्यों न कोऊ इक छीजै ॥ यह सुनि दूत गयो लंकामहँ सुनत नगर अकुलानो। रामचन्द्र प्रताप दशो दिशि जल पर तरत पपानो ॥ दशशिर बोलि निकट बैठायो कहि धांवन सतभाउ । उद्यम कहा होत लंकाको कौने कियो उपाउ॥ जाम्बवन्त अंगद बंधूमिलि कैसे इहि पुर ऐहैं। मो देखत जानकी नैन भरि कैसे देखन पहें ॥ हौं सतभाउ कहत लंकापति जो जिय उत्तम मानो। सकल कहों व्यवहार कटक को कपि उमहे सो मानो ॥ वार बार यों कहत सकत नहिं तो हति लै हैं प्राण । मेरे जान कनकपुर फिरि रामचन्द्र की आन ॥ कुंभकर्ण हँसि कह्यो सभा में सुनौ आदि उत्पात । एक दिवस हम ब्रह्मसभामें चलत सुनी यह बात ॥ कामअंध है सब कुटुंब धन खोवै एकहि घार । सो अब सत्य होत एहि अवसर कौन जु मेटनहार ॥ और मंत्र कछु उर जिनि आनो आजु सुकपि रण मांडहि । गहे बांह रघुपतिके सन्मुख बकरि यह तनु छोड़हि ॥ यह यश जीति परमपद पावहु उर संशय सब खोई। सूर सकुचि जो शरन सँभारी क्षत्री धर्म न होई ॥१२०॥ रपुपति सेतु उलंपन ॥ राग धनाश्री ॥ सिंधु तट उतरत राम उदार। रोप विपम कीनो रघुनंदन सब विपरीत विचार ॥ सागर पर गिरि गिरि पर अंवर कपि धन के आकार । गरज किलक आघात उठत मनु दामिनि पावक झार ॥ परत फिराइ पयोनिधि भीतर सरिता उलटिबहाई । मनु रघु- पति भयभीत सिंधु पत्नी प्योसार पठाई । वाला विरह दुसह सबहुन को जान्यो राजकुमार। वाण वृष्टि शोणित कार सरिता व्याहत लगी न बार ॥ श्रवणनि कनक कलस आभूपन मनि मुक्ता गन हार । सेतुबंध करि तिलक कृपानिधि रघुपति उतरे पार ॥ १२१ ॥ मंदोदरी वचन ॥ राग धनाश्री ॥ देखि रे वह सारंगधर आयो । सायर तीर भीर वानरको शिरपर छत्र बनायो । शंख कुलाहल सुनियन लागे लीला सिंधु बंधायो । सोयो कहा लंक गढ़ भीतर अधिको कोप दिवायो । पद्मकोटि जाकी सेना सुनियत जंतु जु एक पठायो। सूरदास जे हरि विमुख भये तिहि केतक सुख पायो । १२२॥ ॥ अन्यच राग मारू । मेरेजान अजहूं जानकी दीजै लंकापति पिय कहत पियासों यामे कछू न छीजै ।। पाहन तारे सागर बांध्यो तापर चरण न भीजै। वनचर एक लंक तिहि जारी ताकी सरि क्यों लीजै ॥ चरण टेकि दोर हाथ जोरिकै विनती काहे न कीजे । वे त्रिभुवनपति करें कृपा अति कुटुंब सहित सुख जीजै ॥ आवत देखि वाण रघुपतिके. तेरो मन न पतीज। सूरदास प्रभु लंक जारिक राज्य विभीपण दीजै ॥१२३ ॥ मंदोदरीमति रावण गर्व वचन ॥ कहा तू कहति त्रिया वार पारी । कोटि तीतस सुर सेव अह निशि करत राम अरु लक्ष्मण हैं कहारी । मृत्युको वांधि मैं राखियो कूपमें देन आवत कहा डरत नारी ॥ कहत मंदोदरी मेटि को सके तेहि जो रची सूर प्रभु होनहारी ॥ १२४ ॥रावणफे पास अंगद दूतत्व ॥ लंकपति पास अंगद पठायो । सुन अरे अंध दशकंध लैसिया मिलि सेतु कीर बंध रघुवीर आयो वह सुनत परिजरयो वचन नहिं मन धरयो कहा तें राम ते मुहि डरायो । सुर असुर जीति मैं सब कियो आपु वश सूर मम सुयश तिहुँलोक गायो।।१२६॥ ॥रावण तबलौहै रण गाजत। जवलौं कर सारंगपानिके नाहीं वाण विराजत ॥ यम कुबेर इन्द्र है जानत रचि पचिके रथ साजत ॥ रघुपति रवि प्रकाश सो देखौ उड़गन ज्यों तोहि भाजताज्यों सह गवन सुन्दरीके संग बहु वाजन - - - -