पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१८१

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% 3D3D (८८) 'सूरसागर। ॥ हैं बाजत । तैसे सूर असुर आदिक-सब संग तेरे हैं लाजत ॥ १२६ ॥रावण मति श्रीराम संदेश ।। जानिहौं बल तेरो रावण । पठवों कुटुम सहित यम आगे नेक देहि धौं मोको आवनादारुण कीश सुभट वर सन्मुख लैहों संग त्रिदिशि वल पावन।। अगिनि पुंज सित वाण धनुप धार तोहि असुर. कुल सहित जरावनः ॥ करिहों नाम अचल पशुपतिको पूजा विधि कौतुक देखरावन । असुर मुख छेदि सुपक्क नवफल ज्यों अरु शंकर दशशीश चढ़ावन ॥ देहौं राज्य विभीषन जनको लंकापुर रघु आन चलावन । सूरदास निस्तरिहैं इहि यश कृपन दीन जन नव यश गावन ॥ १२७ ॥ रावण मति अंगद उत्तर ॥ मोकोराम रजायसु नाहीं। नातर सुन दशकंध निशाचर प्रलय करा. छिन माहीं। पलटि धरौं नवखंड पुहुमि पर जो बल भुजा सभारों ॥राखों मेलि भंडार सूर शशि नभं कागद ज्यों फारौं।जारौं लंक छेदि दशमस्तक सुर संकोच निवारै॥श्री रघुनाथ प्रताप चरणते उर ते भुज उपारों ॥रेरे चपल स्वरूप ढीठ तू बोलत वचन अनेरो। चितवै कहा पान पल्लव पुट प्राण प्रहारों तेरों गये ससंक युगल बंधू बन जान्यो असुर अहेरो। तीनिलोक विख्यात विशदयंश प्रलय नामहै मेरो । रेरे अंध बीसहू लोचन परत्रियहरन विकारी । सूने भवन गवन तैं कीनों शेष रेष नहिं टारी ।। अजहूं कहयो सुनैजो मेरो आये निकट मुरारी।जनकसुता लै. चलि पाँइनि पर श्रीरघुनाथ पियारी । संकट परे जु शरण पुकारों तो क्षत्री न कहाऊ । जन्महि ते तापस आराध्यो कैसे हित उपजाऊं ॥ अबतो सूर यहै बनिआई हरिको निज पद पाये दशशांश ईश निर्मायल कैसे चरण छुआऊं ॥१२८॥ अंगद वचन ॥ राग मारू ॥ मूरख रघुपति शत्रु कहावताजाके नाम ध्यान सुमिरण ते कोटि यज्ञ फल पावत । नारदादि सनकादि महामुनि सुमिरत मन शुचि ध्यावत । अंबरीष प्रहलाद भक्त बलि निगम नीति जिहि गावत ॥ जाकी घरनि हरी छल वल करि ताते बिलम न लावत । दश अरु आठ शंख वनचर लै लीला सिंधु बधावत ॥ जाइ मिलौ कौशलनेरश को मन अभिलाष बढ़ावत । दै सीता लेकेंश पाइ परि तब लंकेश कहावत तूभूल्यो दशशीश बीस भुज मोहिं गुमान दिखावत । कंध उपारि डारि भूतल में सूर सकल दुखपावत ।।.. ॥ १२९ ॥रावण भेद उपजावन अंगद राम प्रशंसा । राग मारू ॥रेकपि क्यों पितु वैर विसारयो । तो समतल कन्या किन उपजी जो कुलशत्रु न मारयो । ऐसो सुभट नहीं इहि मंडल देख्यों वालि समान । तासों कियो वैर मैं हारयो कीनी पैज प्रमान ॥ ताको वधन कियो इहि रघुपति तो देखत विदमान । ताकी शरण रहो क्यों भावे शबद सुनौ दें कान ॥रे दशकंध अंध मति मूरंख क्यों भूल्यो इहि रूप । सूझत नहीं बसि हू लोचन परयो तिमिरके कूप ॥ धन्य पिता जापर परिफुल्लित राघव भुजा अनूप । वा प्रताप की मधुर विलोकनि गहिवारौं सतरूप ॥जो तुहि नाहि बाँह बल पौरुष अर्धराज देउँ लक । मो समेत ये सकल निशाचर लरत न माने शंक॥जब रथः साजि चटों रणसन्मुख जीय न आनो दंग । राघव सैन समेत संहारौं करौं रुधिर मय अंग ॥ श्री ॥ रघुनाथ चरण व्रत उर धरि क्यों नहिं लागत पाइ। सबके ईश परम करुणामय सबहीको सुखदाइ । हौं जु कहत लै चलो जानकी छांडि सबै दंभान । सन्मुख होइ सूरके स्वामी भक्तन कृपानिधान. ॥ १३०॥ इन्दनीत युद्ध आज्ञा अंगद पाय रोपन । राग मारू ॥ लंकपती इन्द्रजीतको. बुलायो कह्यो तिहि ज़ाहु रणभूमि दल साजिकै कहा भयो राम दल जोरि ल्यायो । कोपि अंगद कंह्यों धरो धर चरण मे ताहि जो सके कोऊ उठाई। तो बिना युद्ध किये जाहि रघुवीर फिरि यह सुनत उठे। जोधा रिसाईः ॥ रहे पचिहारि नहिं पार कोऊ सक्यो उठ्यो तब आप रावण खिसांई। कह्यो ।