पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१८२

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नवमस्कन्ध-९ (८९) अंगद कहा मम चरणको गहत चरण रघुबीर गहु क्यों न जाई ॥ सुनत यह सकुच कियो गवन निज भवनको बालिसुत हूं वहां ते सिधायो । सूरके प्रभुको पाँइ परि यों कह्यो अंध दशकंधको काल आयो ॥ १३१ ॥ अंगद आवन रामव निकट ॥ बालिनंदन आइ शीशनायो । अंध दशकंधको काल सूझत प्रभू मैं कई भेद विधि कहि जनायो।इन्द्रजित चन्यो निज सैन सब साजिकै. रावरी सैन हू साज कीजै।सूर प्रभुमारि दशकंध थपिबंधु तिहि जानकी छोरि यशगात लीजै१३२॥ श्रीरघुनाथ मति लक्ष्मण मतिज्ञा युद्ध निमित्त ॥ रघुपति जो न इन्द्रजित मारौं । तो न होउँ चरणन को चे रोजोन प्रतिज्ञा पारौं ॥ जो दृढ वात जानिये प्रभुजू धर्मगयेकहि बान निवारौं । शपथ राम परताप तिहारे खंड खंड करि डारौं।कुम्भकर्ण दशशीश वीसभुज दानव दलहिं विडारौं । तबै सूर संधान सफल है रिपुको शीश उपारौं ॥ १३३ ॥ लक्ष्मणका सेना सहित युद्ध गवन ॥ लछन दल संग लये लंक घेरी । वसुमति पट अरु अष्ट आकास भये दिश विदिश कोउ नहिं जात हेरी ॥ ऋच्छ पलवंग किलकार लागे करन आन रघुनाथ की जाइ फेरी। पाट गये दूटि परी लूट सब नगर में सूर दरखान कह्यो जाइ टेरी ॥ १३४ ॥ मंदोदरी वचन रावण मति ॥ रावण उठि निरखि देखि आजु लंक घेरी । कोटि जतन करि रही नाहिं सीख सुनी मेरी ॥ गहि गहात किलकात अंध कार आयो । रविको रथ सूझत नहिं धरनि गगन छायो ॥ तोरि पाट लूट परी भागे दरवाना। लंका सोर परयो अजहूं तें न जाना ॥ फोरि फारि तोरि तारि गगन होत गाजै । सूरदास लंका पर चक्र शंख वाजै ॥ १३५ ॥ अन्यच ॥ लंका फिरि गई राम दुहाई । कहति मंदोदरि सुन पिया रावण तें कहा कुमति कमाई ॥ दश मस्तक मेरे वीस भुजा हैं सौ योजन की खाई । मेघनाद से पुत्र महावल कुम्भकर्ण से भाई ॥रहु रहु अवला वोल न बोलो उनकी करत बडाई । तीनि लोक ते पकरि मँगाऊं वेतपसी दोउ भाई। तुम्हें मारि महारावण मारै देय विभीपणराई। पवनको पूत महावल जोधा पल में लंक जराई ॥ जनकसुतापति हैं रघुवर से संग लक्ष्मण से भाई ।। सूरदास प्रभुको यश प्रगत्यो देवनि वंदि छुड़ाई ॥ १३६॥ मेघनाद युद्ध नारद शिक्षा नाग फास मोचन ॥ राग मारू ॥ मेघनाद ब्रह्मा वर पायो । आहुति अगिनि जिवाइ सँतोपी निकस्यो रथ बहु रतन वनायो। आयुध धरे समेत कवच सजि गर्जि चब्योरण भूमिहि आयो। मनो मेघनायक ऋतु पावस वाण वृष्टि करि सैन खपायो। कीनो कोप कुँवर कोशलपति पंथ अकास सायकनि छायो। हँसि हँसि नागफांस शर साधत बंधन बंधु समेत बँधायो॥ नारदस्वामी कह्यो निकट बै गरुडा- सन काहे विसरायो । भयो तोप दशरथके सुतको मुनिको ज्ञान लखायो ॥ सुमिरन ध्यान जानिकै अपनो नाग फांसते सैन छुड़ायो । सूर विमान चढ़े सुरपुर लौं आनंद अभय निसान वजायो॥ १३७ ॥ कुम्भकर्ण रावण संवाद ॥ राग मारू ॥ लंकपति अनुज सोवत जगायो । लंकपुर आइ रघुराइ डेरो दियो त्रिया जाकी सिया मैं ले आयो । तैं बुरी बहुत कीनी कहा तोहिं कहौं छाडि यश जगत अपयश बढ़ायो । सूर अब डर न करि युद्ध को साज करि होइ है सोइ जो दई भायो॥ १३८॥ लक्ष्मण वचन खड्गधारण ॥ राग मारू ॥ लछन को करवार सभारों । कुम्भकर्ण अरु इन्द्रजीत को टूक टूक करि डारों॥ महावली रावण जिहि बोलत पल में शीश सँहारों । सब राक्षस रघुवीर कृपाते एकहि वाण निवारों । हँसि हँसि. कहत विभीपण सों प्रभु महाबली रण भारो।सूर सुनत रावण उठि धायो क्रोध अनल तनं धारो ॥१३९॥ रावण लक्ष्मण युद्ध, लक्ष्मण मूळ ॥ राग मारू ॥ रावण चल्यो गुमान भरयो ।श्री रघुनाथ अनाथ बंधु सों सन्मुख कहत खरयो॥ कोप - -