पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१८३

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सूरसागर। धरो रघुवीर धीर तब लक्ष्मण पाँइ परयो । तेरे तेज प्रताप नाथ जू मैं कर धनुष धरयो ॥ सारथि सहित असुर बहु मारे रावण क्रोध जरयो । इन्द्रजीत लीनी जब सेंथी देवन हहा करयो॥ छूटी विज्जु राशि वह मानो भूतल बंधु परयो । करुणा करत कुचर कौशलपति नैनन नीर झरयो ॥ सूरदास हनुमानदीन कै अंजलि जोरि खरयो। आज्ञादेह सजीवानि लाऊं गिरि उचाइ सिगरयो॥१४०॥ श्रीराम करुणा ॥ राग मारू ॥ निरखि मुख राघव धरत न धीर । भये अरुण विकराल कमलदल लोचन मोचत नीर ॥ बारहवरस नींद है साधी ताते विकल शरीर । बोलत नहीं मौन कहा साधी विपति वटावन वीर ॥ दशरथ मरन हरन सीता को रन वीरनकी भीर । दूजो सूर सुमित्रा सुतविनु कौन धरावै धीर ॥१४१ ॥ अन्यच ॥ अब हौं कौनको मुख हेरों । दुख समुद्र जिहि वारपार नहिं तामें नाव चलाई। केवट थक्यो रहयो अध वीचक कौन आपदा आई ॥ नाहिन भरत शत्रुधन सुन्दर जासों चित्त लगायो । वीचहि भई औरकी औरै भयो शत्रुको भायो । मैं निज प्राण तजौंगो सुन कपि तजिहै जानकी मनिकै । है कहा विभीषनकी गति यहै सोच जिय गुनिकै ॥ बार बार शिरलै लक्ष्मणको निरखि गोदपर राखें । सूरदास प्रभु दीन वचन यों हनूमान सों भाई ॥ १४२ ॥ श्री राम हनू मशंसा ॥ कहां गयो मारुतपुत्र कुमार । द्वै अनाथ रघुनाथ पुकारे संकट मित्र हमार॥ इतनी विपत्ति भरत सुनिपावै आवेदलहि सजूथ । करगहि धनुप जगतको जीत कितक निशाचर यूथ ।। नाहिन और वियो कोउ समरथ जाहि पठाऊं दूत ।वह अवहीं पौरुप दिखरावै होइ पवनके पूत ॥ इतनो वचन श्रवण सुनि हरष्यो फूल्यो अंग न मात । लै लै चरन रेनु निज प्रभुकी रिपुके शोणित न्हात ॥ हो परवल पुनीत केशरि सुत तुम हित बंधु हमारो ॥ जिह्वा रोम रोम प्रति नाहीं पौरुप गनो तुम्हारो॥जहां जहां जेहिकाल सँभारे तहां तहां त्रास निवारे । सूर सहाय कियो वन वसिकै वन विपदा दुख टारे ॥१४३॥ रामव प्रति हनुमत वचन लक्ष्मण मूर्छा उपाय ॥रघुपति मन संदेह न कीजै। मो देखत लक्ष्मण क्यों मरिहै मोको आज्ञा दीजै।कहोततु सूरज उगन देहुँ नहिं दिशि दिशि बादै ताम । कहो तु गन समेत प्रसि खाऊं यमपुर जाइ न राम ॥ कहौ तु कालहि खंड खंड करि टूक टूक करि डारों। कहो तु मृत्युहि मारि डारि के खोजत पालहिं पाटोकहो तु चन्दहिले अकासते लक्ष्मण मुखहि निचोरों। कहो तु पैठि सुधाके सागर जल समेत मैं घोरों।श्री रघुवर मोसों जन जाके ताहि कहा सकराई । सूरदास मिथ्या नहिं भाषत मोहिं रघुनाथ दुहाई ॥१४४॥ सजीवन निमित्त हनुमत गवन ॥ कयो तब हनुमत सों रघुराई । द्रोणागिरि पर आहि सजीवनि सुषेन वैद बताई ॥ तुरत जाइ ले आवो हाते विलंब न करि अब भाई॥ सूरदास प्रभु वचन सुनत हनुवंत चल्यो अतुराई ॥१४५ ॥ हनू पर्वत लावन भरत मिलाप ॥ राग मारू ॥दौनागिरि हनुमान सिधायो । सजीवनिको भेद न पायो तब सब शैले उचायो । चितै रहयो तव भरत देखिकै अवधपुरी जब आयो । मनमें जानि उपद्रव भारी वाण अकास चलायो । राम राम यह कहत पवनसुत भरत निकट तब आयो । पूछयो सूर कौन है कहितू हनुमत नाम सुनायो।।१४६॥ भरत कुशल प्रश्न पूछन, हनु लक्ष्मण मूर्छा कथन, करुणामें सुमित्रा धैर्याकहो कपिरघुपतिको संदेशोकुशल बंधु लक्ष्मणवैदेही श्रीपति सकल नरेश जिन पूछो तुम कुशल नाथकी सुनोभरत बलबीरविलख वदन दुख धरे सिया को हैं जलनिधि के तीवनमें बसत निशाचर छल करिहरीसिया मम माताताकारन लक्ष्मण शर लाग्यो भये राम विनु भ्राता।इतनो वचन श्रवन सुनि सुनिकै सबनि पुहुमि तन जोयो। त्राहि त्राहि कहि