पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(९२) सूरसागर। प्रण प्रतिपारयो । तोरयो कोपि प्रवल गढ़ रावण टूक टूक करि डारयो । कहुँ भुज कहुँ धर कहूँ शिर लोटत मनो मदय मतवारो। डरपत वरुण कुवेर इन्द्र यम महा सुभट तन भारोरिह्यो मांस को पिंड प्राण लै गयो वाण अनियारो। जाके नव ग्रह परे पाटि तर कूपे काल उसारयो । सो रावण रघुनाथ छिनक में कियो गिद्धको चारो। शिर संभारि लै गयो उमापति रह्योरुधिरकोगारो छोरे और सकल सुखसागर बांधि उदधि जल खारो ॥ सुर नर मुनि सव सुयश वखानत दुष्ट दशानन मारयो॥ दियो विभीपण राज्य सूर प्रभु कियो सुरनि निस्तायो। बंधु सहित जानकी संग लै अवधपुरी पग धारयो ॥ १५४ ॥ रावण मरण समय मंदोदरी आदि विलाप । ॥ करुणा करत मंदोदरी रानी । चौदह सहस सुंदरी उभी उठेन कंत महा अभिमानी॥ बार बार वरज्यो नहिं मानत जनकसुता तैं कत घर आनी । ये जगदीश ईश कमलापति सीता तिया से जु कार जानी ॥ लीन्हे गोद विभीषण रोवत कुल कलंक ऐसी मति ठानी । चोरी करी राजहू खोयो अल्प मृत्यु तेरी आइ तुलानी ॥ कुंभकर्ण समुझाइ रहे पचि दे सीता मिलि सारंगपानी। सूर सबनि को कह्यो न मान्यो त्यों खाई अपनी रजधानी ॥ १५५ ॥ आकाशसे अमृत वर्षा ॥ सर- पतिहि बोलि रघुवीर बोले । अमृत की वृष्टि रणखेत ऊपर करो सुनत तिन अमिय भंडार खोले। उठे कपि भालु तत्काल जय जय करत असुर भये मुक्त रघुवर निहारे । सूर प्रभु अगम महिमा न कछु कहि परत सिद्ध गंधर्व जय जय पुकारे ॥ १५६ ॥सीता मिलाप लक्ष्मण सीता देखी जाई । अति कृष दीन छीन तन प्रभु विनु नैननि नीर बढ़ाई ॥ जाम्बवंत सग्रीव विभीषण करी दंडवत आई। आभूषण बहु मोल पटवर पहिरो मात वनाई ॥ विनु रघुनाथ मोहिं सब फीके आज्ञा मेटि न जाई । पुहुप विमान वैठि वैदेही बिजटी तव गुहराई ॥ देखत दरश राम मुख मोरयो सिया परी सुरछाई । सूरदास स्वामी तिहुँपुरके जग उपहास डराई ॥ १६७ ॥परीक्षा हेतु सीता अग्नि मवेश । राग सोरठ । लक्ष्मण रचो हुताशन भाई । यह सुनि हनूमान दुख पाये मोप लख्यो न जाई ॥ आसन एक हुतासन वैठी मानो कुंदन की अरुणाई । जैसे रवि इक पल घन भीतर वितु मारुत दुरिजाई ॥ लै उछंग उत्संग हुतासन निष्कलंक रघुराई । लै विमान बैठारि जानकी कोटि बदन छवि छाई ॥ दशरथ कही देवहू भाषी व्योम विमान निकाई। सिया राम लै भले अवध को सूरदास बलि जाई ॥ १५८ ॥ कौशल्या शकुन विचार काग वचन । राग सारंग ॥ बैठी जन- नि करति शगुनौती । लक्ष्मण राम अव मिलैं मोको दोउ अमोलक मोती ॥ इतनी कहत सु काग उहांत हरीडार उडि वैव्यो । अंचल गांठ दई दुःख भाज्यो सुख जो आनि उर पैव्यो । जोलोंहों जीवन भर जीवों सदानाम तुव जपिहौं । दधि ओदन दोना कार देहौं अरु माइनमेंथ पिहौं। अवके जो परचो करि पाऊं अरु देखा भरि आखें । सूरदास सोनके पानी मढि होंचों अरु पाखै ॥ १५९ ॥ अंगद वसीठी रावण वध आदि पर्यंत लीला । राग मारू ॥ वालिंनदन वली विकट वनचर महा द्वार रघुवीर को वीर आयो । और ते दौर दरवान दशशीशसों जाय शिरनाय यों कह सुनायो। सुनि श्रवण दशवदन दशन अभिमान कर नैनकी सैन अंगद बुलायो। देखि लंकेश कपिभेश दर दर हँस्यो सुन्यो भट कटक को पारपायो॥ विविध आयुध धरे सुभट सेवत खरे छत्रकी छोह निर्भय जनायो । देव दानव महाराज रावण सभा कहन को मंत्र तहां कपि पठायो॥ रंक रावण कहा टेक तेरो इतो दोउ कर जोरि विनती विचारो। परम अभिराम रघुनाथ के रोमपर वीस भुज शीश दश वारि डारो। झटकि हाटक मुकुट -