पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१८६

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नवमस्कन्ध-९ (९३ पटकि भट भूमि सों झारि तरवारि तेरो शिर संहारों । जानकीनाथ के हाथ तेरो मरण कहा मतिमंद तोहिं मध्यमारों ॥ पाक पावक करै वारि सुरगति भरै पवन पावन करै द्वार मेरे । गान नारद करें ज्ञान सुरगुरु कहै वेद ब्रह्मा पढ़े पौरि टेरे॥ शेप वासुकि प्रभृति नाग गंधर्व गण सकल वसुजीति में करे चेरे । सुनिअरे शठ दशकंधको कौन भय राम तपसी दये आनि डेरे।। तपवली सत्य तापसवली तप विना वारि पर कौन पाषाण तारे। कौन ऐसो बली सुभट जननी जन्यो एकही वाण तकि वालि मारै ॥ परमगंभीर रणधीर दशरथ तनय शरण गये काटि अवगुण विसाएँ । जाइ मिलि अंध दशकंध गहि दंत तृण तो भलै मृत्यु मुखते उवारै ॥ कोपि करि वार गहि काल लंकाधिपति मूढ कहा रामको शीशं नाऊं । शंभुकी सप्त सुनि कुकपि कायर कृपण श्वास आकाश वनचर उड़ाऊं ॥ होइ सन्मुख भिरों शंक नहिं मन घरों मारि सब कटक सागर वहाऊं । कोटि तेंतीस ममसेव निशि दिन करत कहा अब राम नरसों डराऊ॥ परो भहराय भभ कत रिपु पायसों करि कदन रुधिर भैरों अघाऊं। सूरसाजै सबै देव दुंदुभि अवै एकते एक रण करि विता॥१६०॥वद्यो रावण सुन्यो शीश तव शिवधुन्यो उमडिरण रंग रघुवीर आयोरुंड भक रुंड धुकि धकत धरणी परै रुधिर सरिता नहीं पार पायोराम शर लागि मनु आगि गिरिपर जरी उछलि छिछिन शरनि भानु छाये ॥ मारि दशकंध पथ बंधु को सूर प्रभु राजीवनैन पर सिया ल्याए ॥ १६ ॥ ( उत्तर कांड ) अयोध्या मशंसा ॥ राग मारू ॥ हमारो जन्मभूमि यह गाउँ । सुनहु सखा सुग्रीव विभीपण अवनि अयोध्या नाउँ ॥ देखत बन उपवन सरिता सर परम मनोहर ठाउँ। अपनी प्रकृति लिये बोलत हौं सुरपुर में न रहाउँ ॥ ह्या के वासी अविलोकत हौं आनंद उर न समाउँ। सूरदास जो विधि न सकोचे तो वैकुंठ नजाउँ ॥ १६२ ॥राम आगमन श्रवन सुनि भरत रचना करन उत्सव प्रकाश॥राग वसंताराघव आवति हैं अवधि आजुारिपु जीतेसाधे देव काजु॥प्रभु कुशल वधू सीतासमेताजस सकल देश आनंद देता।कपि सोभित सकल अनेक संगाज्यों पूरण शशि सागर तरंग सुग्रीव विभीषण जाम्बवंत । अंगद केदार सुखेन संत ॥ नल नील द्विविद केसरि गवछ । कपि कहे मुख्य और अनेक लछ। जब कही पवनसुत विविधवात । तव उठी सभा सब हर्ष गात ॥ ज्यों पावस ऋतु धन प्रथम घोर । जल जीवक दादुर रटत मोर ॥ जब सुने भरत पुर निकट भूप। तब रच्यो नगर रचना अनूप ॥ प्रति प्रति गृह तोरण ध्वजा धूप । सजे सकल कलस अरु कदली जूप ॥ दधि हरद दूब फल फूल पान । कर कनकथार त्रिय करत गान ॥ सुनि भरे वेद ध्वनि शंख । नाद । सुनि निरखि पुलक आनंद प्रसाद ॥ देखत प्रभु की महिमा अपार । सब विसरि गये मन बुधि विकार ॥ जय जय दशरथ कुल कमल भान । जयकुमुद जननि शशि प्रजा प्रान ॥ जय दिव भूतल शोभा समान । जय जय जय सूर न शब्द आन ॥ १६३ ॥ श्री राम वचन ॥ सुग्रीव प्रति भरत । दरशावन परस्पर मिलाप ॥ राग मारू ॥ देखो कपिराज भरत वे आये । मम पांवरी शीश परजाके कर अंगुरी रघुनाथ वताए ॥ क्षीन शरीर वीरके विछुरे राग भोग चितते विसराए ॥ लघु दीर्घ तपसा अरु सेवा स्वामी धर्म सब जगहिं सिखाये । पुहुप विमान दूरिही छोड़े चरण चपल प्रभु प्रण करिधाए ॥ आनंद मगन सदन सुत कैकयी कनक दंड ज्यों गिरत उठाये। भेंटत आंसू परत पीठिपर गद्गद गिरा नैनजल छाए ॥ ऐसे मिली सुमित्रासुतको विरह अमि तनु जरत बुझाए । यथायोग भेटे पुरवासी शूल मिटी सुखसिंधु पठाए । सिया राम लक्ष्मण मुख निरखत सूरदासके नैन सिराए ॥ १६ ॥ कौशल्या सुमित्रा आदि आरती मंगलाचारः ॥ राग मारू । अति -